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तृतीयोऽङ्कः (एष स खलु दयितेषु घटयति सौभाग्यचङ्गिमगुणान् । चन्द्रः एव जनयति वाणीषु कठिनबन्धेषु सलिलानि (?)।।) मित्रानन्दः- प्रिये! वक्त्रं शीतरुचिर्वचांसि च सुधा, दृष्टिश्च कादम्बरी,
बिम्बोष्ठः पुनरेष कौस्तुभमणिर्मूर्तिश्च लक्ष्मीस्तव। श्रद्धालुयुगपद् विलोकितुमयं स्वापत्यजातं चिरा
देकस्थं विरचय्य कुन्दरदने! त्वामर्णवः सूतवान्।।१०।। अपि चत्वं कौमुदी सुदति! गात्रमिदं च पुष्प
चापाभितापपरिवापनिपीतसौस्थ्यम्।
कहा गया है कि अविभक्त होने के कारण अत्यन्त दुर्बोध वाणी को देवताओं की प्रार्थना स्वीकार कर इन्द्र और वायु ने पदादिस्वरूप में विभक्त कर सरल-सुबोध बनाया)।।९।।
मित्रानन्द- प्रिये!
तुम्हारा मुख चन्द्रस्वरूप, वाणी अमृतस्वरूपा, आँखें मदिरारूपिणी, बिम्ब (फलसदृश रक्तिम) ओष्ठ कौस्तुभमणिस्वरूप और तुम्हारी मूर्ति (शरीर) साक्षात् लक्ष्मीस्वरूपा है। हे मोती के समान चमकती दन्तपंक्ति वाली कौमदि ! (ऐसा प्रतीत होता है कि) अपने सन्ततिसमूह को चिरकाल से ही एकस्थ देखने के अभिलाषी समुद्रदेव ने उक्त सभी का तुम्हारे शरीर में एक साथ समावेश करके तुमको उत्पन्न किया है।।१०।।
और भी
हे आकर्षक दन्तपङ्क्ति वाली कौमुदि! तुम वस्तुत: कौमुदी (चन्द्रिका) ही हो, फिर भी मेरा शरीर कामाग्नि के परिताप के सम्पर्क से पूर्णत: अस्वस्थ हो गया
१. इस पद्य का पाठ स्खलित है। शुद्ध पाठ ऐसा प्रतीत होता है
एष स खलु दयितासु घटयति सौभाग्यचङ्गिमगुणान् । इन्द्र एव जनयति वाणीषु कठिनबन्धेषु सरलत्वम् ।। - अनुवाद इसी पाठ के आधार पर किया गया है।
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