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कौमुदीमित्रानन्दरूपकम् यदयं महौषधिवलयसुभगम्भविष्णुमितरो मे बाहुः। मित्रानन्द:- (सोत्कण्ठं कौमुदीवदनमवलोक्य) मैत्रेय! रात्रिन्दिवं विजयिनो हरिणेक्षणानां,
वक्त्रस्य मैत्र्यमनुरुध्य विलाञ्छनस्य। नीलोत्पलानि यदि हासमुपाश्रयेयु
र्जायेत किं वद तदा जडजप्रवादः?।।८।। कौमुदी- (अपवार्य) सहि! अज्ज केणावि कारणेण सत्यवाहकुमारो अमयघडिओ व्व सोहग्गमइओ व्व मुत्तिमओ व्व भयवं पंचबाणो मे लोअणाणं पडिहासदि। ता किं एसो अपुरवो को वि? ___ (सखि! अद्य केनापि कारणेन सार्थवाहकुमारः अमृतघटित इव सौभाग्यमय इव मूर्तिमय इव भगवान् पञ्चबाणः मम लोचनयोः प्रतिभासते। तत्किमेषोऽ पूर्वः कोऽपि।) कुन्दलता
एसो सो च्चिअ दइएसु घडइ सोहग्गचंगिमगुणाई। चंदो च्चिअजणइ वाणीसु कठिणबंधेसु सलिलाइं(?)।।९।।
दाहिनी कलाई महौषधि के वलय से शोभित हो रही है।
मित्रानन्द-(उत्कण्ठापूर्वक कौमुदी के मुख को देखकर) मैत्रेय!
मृगनयनी अङ्गनाओं के अहर्निश खिले हुए निष्कलङ्क (सुन्दर) मुख के साथ मैत्री का ध्यान रखकर यदि नीलकमल विकसित हो रहे हैं,तो फिर कहो कि उन्हें जड़ कहने का अथवा जड़ = जल से उत्पन्न होने का प्रवाद क्यों? ।।८।।
कौमुदी-(मुँह दूसरी तरफ घुमाकर) सखि! आज न जाने किस कारण से सार्थवाहकुमार मुझे अमृतघटित, सौभाग्ययुक्त और मूर्त्तिमान् भगवान् कामदेव ही प्रतीत हो रहे हैं। तो क्या यह कोई अद्भुत (गुणसम्पन्न) व्यक्ति है?
कुन्दलता-यही है जो (कठोर हृदय वाली) रमणियों में भी सौभाग्य और सुन्दर गुणों का आधान करता, अर्थात् प्रेमाङ्कर उत्पन्न करता है। इन्द्र ही कठिन सङ्घटना वाली (अविभक्त) वाणी में सरलता का आधान कर सकता है (तैत्तिरीयसंहिता में
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