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________________ तृतीयोऽङ्कः नादः किन्नरकण्ठि ! कर्णसुखदो, वक्षोजलक्ष्मीरियं वक्षः प्रीणयते, मृगाक्षि! वद ते किं नेन्द्रियाणां मुदे ? ।। ७ ।। कौमुदी - (कण्ठिकां विलोक्य सात्त्विकभावान् नाटयति । पुनः स्वगतम्) इतिकालं तादस्स अणुरोहेण मए अप्पा विडंबिदो। इआणिं पुण एदं चेअ नयणमणमहूसवं सत्यवाहं अणुसरिस्सं । (इयत्कालं तातस्यानुरोधेन मयाऽऽत्मा विडम्बितः । इदानीं पुनरेतमेव नयन - मनोमहोत्सवं सार्थवाहमनुसरिष्यामि ।) कुन्दलता — सत्यवाह! तेण मणिणा किं पि तुम्हाणं उवकिदं ? (सार्थवाह ! तेन मणिना किमपि युष्माकमुपकृतम् ? ) मैत्रेयः - कौमुदीहृदयकार्मणं किमपि वस्तु तदानीमेवोपनयता तेन रत्नेन महदुपकृतम्। ४३ मित्रानन्द:- -कुन्दलतिके! अस्मन्मनःसङ्ग्रहणसत्यङ्कारस्त्वया समुपनीतस्तदानीमसौ मणिविशेषः । मैत्रेय:- कुन्दलतिके! अयमपि तस्य त्वदुपनीतस्य मणेः सत्प्रसादो - आह्लादित कर रहा है। इसलिए हे मृगाक्षि! तुम बतलाओ कि तुम्हारा क्या है जो इन्द्रियों को आनन्दित नहीं करता ? ।। ७ । । कौमुदी - ( माला को देखकर स्वेदरोमाञ्चादि सात्त्विक भावों का अभिनय करती है । पुनः मन ही मन ) इतने समय तक पिता का कहना मानकर मैंने स्वयं को ही धोखा दिया है, किन्तु अब तो मैं दृष्टि और मन को आनन्दित करने वाले सार्थवाह (मित्रानन्द) का ही अनुसरण करूँगी । कुन्दलता - सार्थवाह ! क्या उस मणि ने आपका कुछ उपकार किया ? मैत्रेय - तुम्हारे द्वारा लायी गयी उस मणि ने उसी समय कौमुदी को हमारे हृदय में बसा देने वाला महान् उपकार किया। मित्रानन्द - कुन्दलतिके! तुम्हारे द्वारा उस समय लाया गया यह मणिविशेष हमारी कामना को पूर्ण करने वाला है। मैत्रेय - यह भी तुम्हारे द्वारा लायी गयी उस मणि की ही कृपा है कि मेरी Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002080
Book TitleKaumudimitranandrupakam
Original Sutra AuthorRamchandrasuri
Author
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1998
Total Pages254
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Religion, & Culture
File Size8 MB
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