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________________ ४२ कौमुदीमित्रानन्दरूपकम् प्रकृतिचपलं चक्षुर्वाचः स्थिरा हरिणीदृशः, सरलिमपदं नासान्यासो, भुवौ कुटिलस्थिती। नवधवलिमा गण्डाभोगोऽधरः किसलारुणः, किमपि गुपिला नाभिर्वक्षः प्रकाशपयोधरम्।।५।। कुन्दलता- अवि यकाणं पि अंगलट्ठी भूसिज्जइ भूसणेहिं तरुणीणं। भूसिज्जइ उण काणं पि भूसणं अंगलट्ठीए ।।६।। अपि च - (कासामपि अङ्गयष्टिः भूष्यते भूषणैः तरुणीनाम् । भूष्यते पुनः कासामपि भूषणमङ्गयष्टिना।।) मित्रानन्दः- (उपसृत्य) प्रिय! लावण्यपुण्यपुण्येष्वपि किमात्मनोऽङ्गेषु वथा वैराग्यमुवहसि? गात्रं सन्नतगात्रि! नेत्रसुखदं, निःश्वासपूरांहति नासाऽऽह्लादकरी, रदच्छदसुधा जिह्वाऽतिसौहित्यकृत्। इस कौमुदी की आँखों में स्वाभाविक चञ्चलता है, वाणी हरिणी के समान गम्भीर है, नासिका का विन्यास बिल्कुल सीधा है, भौहें कुटिल हैं, गण्डस्थल नवधवलिमायुक्त है, ओष्ठ नवपल्लव के समान लालिमायुक्त है, नाभि किञ्चित् गहरी और वक्षःस्थल उन्नत स्तनयुगल वाला है।।५।। कुन्दलता-और भी किन्हीं तरुणियों की अङ्गयष्टि (शरीर) तो आभूषणों से सुशोभित होती है और किन्हीं तरुणियों की अङ्गयष्टि से ही आभूषणों की शोभावृद्धि होती है।।६।। मित्रानन्द-(समीप आकर) प्रिये! लावण्यरूपी पुण्य से पवित्र (शोभित) अङ्गों (वाले शरीर) से वैराग्य का कष्ट क्यों सहन कर रही हो? सन्नताङ्गि! तुम्हारा शरीर दृष्टि-सुखद, अर्थात् सुन्दर है, निःश्वासवायु से पूर्ण अतएव फड़कती हुई नासिका आह्लादकारिणी है, अधर अमृतरस टपकाने वाला है और जिह्वा (वाणी) अत्यन्त मधुर है। हे किन्नरों के समान सुरीले कण्ठ वाली! तुम्हारा नाद (स्वर) कर्णसुखद है और उन्नत पयोधरों से सुशोभित वक्षःस्थल Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002080
Book TitleKaumudimitranandrupakam
Original Sutra AuthorRamchandrasuri
Author
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1998
Total Pages254
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Religion, & Culture
File Size8 MB
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