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तृतीयोऽङ्कः (ततः प्रविशति कौमुदी कुन्दलता च।) कौमुदी- (सकैतवम्) अहवा निसग्गचंगंगसन्निवेसाहिं विचित्तभूसणाहिं नगरविलासिणीहिं विलुत्तहिअयस्स तस्स को नाम अम्हारिसीसु दरिद्दकन्नगासु अणुराओ? ता निष्फलो च्चेअ मे एस बन्धुअणपरिच्चाए पारंभो। __ (अथवा निसर्गचङ्गाङ्गसन्निवेशाभिर्विचित्रभूषणाभिर्नगरविलासिनीभिर्विलुप्तहृदयस्य तस्य को नामास्मादृशीषु दरिद्रकन्यकासु अनुरागः? तन्निष्फल एव ममैष बन्युजनपरित्यागे प्रारम्भः।)
कुन्दलता- सहि! कीस अत्ताणयं विसायपिसाएण संतावेसि? (सखि ! कस्मादात्मानं विषादपिशाचेन सन्तापयसि ?)
अंगाण सन्निवेसो हलिअसुआणं पि तत्तिओ च्चे। वेसेणं चिय लायण्णविम्हओ धणवइसुआणं ।।४।। (अङ्गानां सन्निवेशः हालिकसुतानामपि तावानेव। वेशेनैव लावण्यविस्मयः धनपतिसुतानाम्।।) मैत्रेयः- पश्य कौतुकम्,
(तत्पश्चात् कौमुदी और कुन्दलता प्रवेश करती हैं।) कौमुदी- (चतुराई से) प्रकृति से ही सुन्दर अङ्गसन्निवेश वाली और आकर्षक आभूषणों को धारण करने वाली नगरवधुओं द्वारा मुग्ध हृदय वाले उस (मित्रानन्द) की हमारे जैसी दरिद्र कन्याओं में अनुराग की क्या सम्भावना? अतः मेरा यह बन्धुजनों के परित्याग का प्रयास निष्फल ही है। ___कुन्दलता- सखि! किस कारण स्वयं को विषादरूपी पिशाच से सन्तप्त कर रही हो?
अङ्गसनिवेश तो कृषककन्याओं का भी उन नगरवधुओं के समान ही होता है। धनपति-कन्याओं का लावण्यविस्मय तो उनकी वेशभूषा से ही होता है (शारीरिक सौन्दर्य के कारण नहीं)।।४।।
मैत्रेय-देखो कैसा अद्भुत सौन्दर्य है!
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