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________________ ४० कौमुदीमित्रानन्दरूपकम् (विमृश्य) यतः प्रभृति भगवतः पाशपाणेस्तां कल्पलतां कण्ठिकामधिगतवानस्मि ततः प्रभृत्येव कौमुदीसम्पर्कपर्वणि कथङ्कारमतितरामुत्कण्ठते चेतः? तदवगच्छ किमत्र निदानम्? मैत्रेय:- स्त्रीपुंसयोर्मन्मथोन्मादैककार्मणं कण्ठिकायाः प्रभावातिशय एवात्र निदानम्। तदेहि पर्यालोचयितुं तां कौमुदीमुपवनाभ्यन्तरे क्वचिदपि मृगयामहे। (नेपथ्ये) खणदिट्ठजणणिमित्तं बंधुअणं परिचिअं हिअकरं च । मिल्लंतीणं महिलाण मुणइ जइ माणसं बंभो ।।३।। (क्षणदृष्टजननिमित्तं बन्युजनं परिचितं हितकरं च। मुञ्चन्तीनां महिलानां जानाति यदि मानसं ब्रह्मा।।) मित्रानन्द:- (आकर्ण्य) कथमयं लतागृहाभ्यन्तरे कौमुदीध्वनिः? (विलोक्य) मैत्रेय! कौमुदी कुन्दलता चात्रैव तिष्ठतः। तत् तावत् तिरोहिता एव क्षणं शृणुमो वयमनयोः सङ्कथाम्। (सोचकर) जब से मैंने भगवान् पाशपाणि की उस कल्पलता नाम की माला को धारण किया है, तभी से कौमुदी से मिलन किस प्रकार हो- यह सोचकर चित्त उत्कण्ठित हो रहा है। तो सोचो कि इसका क्या कारण है? मैत्रेय- स्त्री-पुरुष में कामोन्माद की एकमात्र उत्पादिका कण्ठिका का प्रभावातिशय ही इसका कारण है। तो आओ उस कौमुदी को देखने के लिए उपवन के अन्दर कहीं खोजते हैं। (नेपथ्य में) क्षणमात्र देखे गये प्रेमीजनों के लिए अपने चिरपरिचित और हितकर बन्धुजनों का भी परित्याग कर देने वाली महिलाओं के मन को यदि कोई समझ सकता है, तो वह ब्रह्मा ही है (अन्य कोई नहीं)।।३।। मित्रानन्द- (सुनकर) क्या लतागृह के भीतर यह कौमुदी की ध्वनि है? (देखकर) मैत्रेय! कौमुदी और कन्दलता यहीं बैठी हैं। अत: हम दोनों छिपकर ही क्षणभर इनका वार्तालाप सुनते हैं। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002080
Book TitleKaumudimitranandrupakam
Original Sutra AuthorRamchandrasuri
Author
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1998
Total Pages254
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Religion, & Culture
File Size8 MB
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