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|| अथ तृतीयोऽङ्कः ।।
(ततः प्रविशति मित्रानन्दो मैत्रेयश्च।) मित्रानन्दः- (स्मृत्वा) मैत्रेय! सत्यां यौवनभाजि तापसपतेः पुत्र्यां पुलोमात्मजा
दएँ विश्वपुरन्धिरूपजयिनि व्यर्थं वहत्यात्मनि। दो वाऽस्तु दृशा निमेषकलुषप्रत्यासनिष्पङ्कया जातं तर्हि मृगेक्षणासु नियतं पाञ्चालिकाश्चारवः।।१।।
(पुन: सानन्दम्) अमृतजलधेः पुण्यैस्तैस्तैर्निमज्जितमूर्मिभिः
मृदुभिरभितो देवस्येन्दोमरीचिभिरञ्चितम्। निजवपुरिदं मन्ये तस्याः कुरङ्गकचक्षुषो
विरतिविमुखैः स्निग्धैर्दिग्धं कटाक्षनिरीक्षितैः।।२।।
तृतीय अङ्क (तत्पश्चात् मित्रानन्द और मैत्रेय प्रवेश करते हैं।) मित्रानन्द- (स्मरण करके) मैत्रेय!
कुलपति की नवयौवना पुत्री (कौमुदी) के होते हुए पुलोम की पुत्री (इन्द्राणी) सम्पूर्ण विश्व की रमणियों के सौन्दर्य को जीत लेने वाले अपने सौन्दर्य पर व्यर्थ ही अभिमान कर रही है और यदि उस इन्द्राणी को अपनी उन आँखों पर गर्व है जो निमेषरूपी कीचड़ का सम्पर्क न होने से अत्यन्त स्वच्छ हैं, तो इस मृगनयनी की आँखों में भी तो सुसज्जित पक्ष्मावली और मनोहर पुतलियाँ हैं ही ।।१।।
(पुनः आनन्दपूर्वक) उस मृगनयनी के आसक्तियुक्त स्निग्ध कटाक्ष से लिप्त मेरा शरीर मानो अमृतजलधि (क्षीरसागर) की पवित्र-शीतल लहरों से नहाया हुआ और चन्द्रदेव की शीतल किरणों से सर्वत: सुशोभित हो गया है।।२।।
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