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कौमुदीमित्रानन्दरूपकम् पाशपाणि:- (सलज्जं मित्रानन्दं विमुच्य) मुने! कथमयं कुलपतेर्जामाता?
गजपाद:-- दत्ताऽस्मै कुलपतिना युष्मत्पुत्री कौमुदी। विवाहमङ्गलमप्यधप्रातीनं तदपि युष्माभिरनुष्ठेयम् ।
कुन्दप्रभ:- जलधिपरमेश्वर! अपरोऽपि मनुष्योन पात्रं भवत्क्रोधप्रबोधस्य, किं पुनरयं कुलपतेर्जामाता ?, तदयं विशेषतो यादसांनाथस्य प्रसादातिरेक कमप्यर्हति ।
पाशपाणि:- एतस्मै प्रयच्छ तर्हि तां कल्पलतां कण्ठिकां येनायं कौमुदीनेत्रयोर्महोत्सवमुपनयति ।
. (कुन्दप्रभः कण्ठिकामुपनयति।) पाशपाणि:- गजपाद! जामातरमादाय प्रयाहि पर्णशालायाम्। वयमपि करणीयान्तरमनुतिष्ठामः।।
(इति निष्क्रान्ता: सर्वे।) ।। द्वितीयोऽङ्कः समाप्तः।।
__पाशपाणि- (लज्जापूर्वक मित्रानन्द को छोड़कर) मुनिवर! क्या यह कुलपति का जामाता है?
गजपाद- हमारे कुलपति ने अपनी पुत्री इसे प्रदान कर दी। शुभ विवाह भी आज ही होना है और वह भी आपको ही सम्पन्न कराना है।
कुन्दप्रभ- समुद्रपति! अन्य मनुष्य भी आपके क्रोध के पात्र नहीं हैं, तो यह कुलपति का जामाता क्यों? यह तो आपका विशेष कृपापात्र है।
पाशपाणि- तब इसको वह कल्पलता की माला दे दो जिससे यह कौमुदी के नेत्रों को आनन्दित करेगा (अतिसुन्दर दिखाई देगा)।
(कुन्दप्रभ माला ले आता है।) पाशपाणि- गजपाद! जामाता को लेकर पर्णशाला में जाओ। हम भी अन्य कार्यों को सम्पन्न करते हैं।।
(सभी निकल जाते हैं।) ।। द्वितीय अङ्क समाप्त।।
(कुन्दा
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