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द्वितीयोऽङ्कः
परोपकारः
क्रियते स्वस्य कल्याणहेतवे ।
ततोऽपि यद्यकल्याणं कल्याणात् तत् पदं परम्।। १३ ।।
तदतः परं भगवतो नाभेयस्य पादाः शरणम् ।
पाशपाणिः - अरे मर्त्यापसद ! निजस्य दुर्विलसितस्य फलमनुभव | (इत्यभिधाय सहकाराभ्यर्णमुपनयति । )
(नेपथ्ये)
प्रसीद पयसांपते! श्लथय कौमुदीभर्तरि
त्रिलोक भयकार्मणीं हृदय- नेत्र - वाग्विक्रियाम्। अमी ननु तपोधना जनविहारबन्ध्ये भव
प्रभावमथितापदः प्रतिवसन्ति घोरे वने । । १४ । ।
पाशपाणि: - कथमयं कुलपतेरनुजो गजपादः ? (प्रविश्य)
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गजपाद:
यद्यपि परोपकार अपने कल्याण के लिए ही किया जाता है, तथापि यदि उससे अकल्याण ही हो जाय तो भी वह कल्याण से श्रेयस्कर ही है ।। १३ ।।
यादसांनाथ ! कोऽयं निजे जामातरि क्रोधोद्बोधविप्लवः ?
अब तो भगवान् ऋषभदेव के चरणकमल ही शरण हैं।
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पाशपाणि - अरे नीच मनुष्य! अपने दुष्कृत्य का फल भोग। (यह कह कर आम्रवृक्ष के समीप ले जाता है । )
(नेपथ्य में)
हे जलपति पाशपाणि! प्रसन्न होवें और कौमुदी के पति पर प्रदर्शित तीनों लोकों को भयभीत करने वाली हृदय, नेत्र और वाणी की विक्रिया ( प्रचण्ड क्रोध) को शान्त करें। आपके सत्प्रभाव से नष्ट हुए विघ्न वाले ये तपस्विगण मानवविहार से शून्य इस घोर वन में (निश्चिन्ततापूर्वक) रह रहे हैं । । १४ । ।
पाशपाणि- क्या यह कुलपति का अनुज गजपाद (बोल रहा) है? (प्रवेश करके)
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गजपाद — पाशपाणि! अपने जामाता पर यह विनाशकारी क्रोध का प्रदर्शन किस हेतु ?
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