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कौमुदीमित्रानन्दरूपकम्
(उभौ प्रतिभयेन प्रकम्पेते । )
मित्रानन्द:- परमेश्वर! आवामविज्ञातद्वीपस्वरूपौ भग्नयानपात्रौ वणिजौ देवतायतनरामणीयकमवलोकयितुं जगतीमधिरूढौ ।
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कुन्दप्रभः - परमेश्वर ! अबुद्धिपूर्वकोऽयमनयोर्मर्त्ययोरपराधः ।
पाशपाणि: - (सहकारमवलोक्य कुन्दप्रभं प्रति ) परदारविप्लवकारी दुरात्मा खेचरापसदः कथं क्वचिदपि गतवान्? अरे मत्यौ! जानीतं तस्य दुरात्मनः प्रवृत्तिम् ?
उभौ- (सभयम्) किमपि न जानीवः ।
पाशपाणि: - (विमृश्य) यथेयं वज्रकीलसङ्कुला विलोक्यते भूमिस्तथा व्यक्तमनयोर्मर्त्ययोः शल्यसमुद्धारप्रयोगः । ( पुन: साटोपं वज्रकीलानादाय मित्रानन्दं केशैर्गृह्णाति । )
(मैत्रेय: प्रतिभयेन मूर्च्छति । )
मित्रानन्दः - (धैर्यमवलम्ब्याऽऽत्मगतम्)
(दोनों भय से काँपते हैं ।)
मित्रानन्द — हे परमेश्वर ! इस द्वीप के स्वरूप से अनभिज्ञ, नष्ट हुई नौका वाले हम दोनों व्यापारी इस मन्दिर की सुन्दरता के अवलोकन हेतु इस क्षेत्र में आ गये।
कुन्दप्रभ - परमेश्वर ! इन दोनों मनुष्यों से यह अपराध अज्ञानवश हुआ है।
पाशपाणि - (आम्रवृक्ष को देखकर कुन्दप्रभ से) परस्त्री को सताने वाला दुष्ट और नीच आकाशचारी क्या कहीं भाग गया? अरे मनुष्यो ! क्या उस दुष्ट का समाचार जानते हो?
दोनो - ( भयपूर्वक) हम कुछ भी नहीं जानते ।
पाशपाणि- ( सोचकर ) जिस प्रकार यह भूमि वज्रकील से व्याप्त दिखाई दे रही है, उससे स्पष्ट है कि इन दोनों मनुष्यों ने शल्यक्रिया करके उस दुष्ट को मुक्त कराया है। (पुनः क्रोधपूर्वक वज्रकीलों को लेकर मित्रानन्द का केश पकड़ लेता है | )
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(मैत्रेय भय से मूर्च्छित हो जाता है । )
मित्रानन्द - (मन में धैर्य धारण कर सोचता है )
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