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________________ तृतीयोऽङ्कः ४७ कौमुदी- तदो जो को वि पभूददविणो सत्यवाहो भोदि तस्स अहं परिणेदुं दिज्जामि। (ततो यः कोऽपि प्रभूतद्रविणः सार्थवाहो भवति तस्मै अहं परिणेतुं दीये।) मित्रानन्दः- (सौत्सुक्यम्) ततस्ततः? कौमुदी- तदो मए सह कीलिदुं पण्णसालम्भन्तरे उवविसंतु च्चिअ पल्लंकतिरोहिदकूविआए निवडदि। (ततो मया सह क्रीडितुं पर्णशालाभ्यन्तरे उपविशन्नेव पल्यङ्कतिरोहितकूपिकायां निपतति।) कुन्दलता- (विहस्य) एसा सा अवरसत्थवाहाणं पडिवत्ती। (एषा साऽपरसार्थवाहानां प्रतिपत्तिः ।) कौमुदी- अहं उणपुव्वसंचिअंपि दविणंसंगहिअ पण्णसालब्भंतरदुवारेण तुम्हेहिं सह समागमिस्सं। (अहं पुनः पूर्वसञ्चितमपि द्रविणं संगृह्य पर्णशालाभ्यन्तरद्वारेण युष्माभिः सह समागमिष्यामि।) मित्रानन्दः- (सरभसम्) ततः परं क्व गन्तव्यम्? कौमुदी-तब जो कोई भी प्रभूत धनवान् व्यापारी होता है, उसे मैं विवाह करने हेतु प्रदान कर दी जाती हूँ। मित्रानन्द-(उत्सुकतापूर्वक) फिर उसके बाद? कौमुदी-तदनन्तर मेरे साथ केलि करने हेतु पर्णशाला में बैठते ही पलङ्ग से ढंके हुए कुएं में गिर जाता है। कुन्दलता-(हँस कर) यही है दूसरे सार्थवाहों की उपलब्धि। कौमुदी-मैं पूर्वसञ्चित धन को भी साथ लेकर पर्णशाला के भीतरी द्वार से आप लोगों के साथ आ जाऊँगी। मित्रानन्द-(शीघ्रतापूर्वक) उसके बाद कहाँ जाना है? Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002080
Book TitleKaumudimitranandrupakam
Original Sutra AuthorRamchandrasuri
Author
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1998
Total Pages254
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Religion, & Culture
File Size8 MB
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