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कौमुदीमित्रानन्दरूपकम् मित्रानन्द:- (कर्णी पिधाय) सिद्धाधिनाथ! मामेवमौचित्यातिक्रमेण मा दवीथाः। वसुधास्पृहणीयवैभवैः खेचरचक्रवर्तिभिर्भवादृशैः प्रबोधितस्य श्रवणोदरसदःसुधावर्षिणश्चाटुकर्मणः पुरन्दरार्हस्य तस्यास्यानर्हाः खलु जठरपिठरीभरणमात्रोन्मदिष्णुचेतसो निस्तेजसो वणिजः।
(नेपथ्ये) श्रेयांसि प्रभवन्तु ते, प्रतिदिशं तेजांसि वर्धिष्णुतां
तां पुष्णन्तु, भवन्तु वीतविपदस्ते पाथसां सम्पदः। आशाः सन्तु भवद्यशोभिरनिशं व्याकोशकुन्दत्विषो,
विश्वेषां शमिनां तपोभिरनधैः कल्पान्तजीवी भव।।११।। पुरुषः- (समाकर्ण्य सकम्पम्) यथाऽमी घोरघोणप्रभृतयस्तपोधनाः प्रमोदप्रबोधितबाष्पोष्णमूmलकण्ठकुहरसदसो मधुरगम्भीरघोषमाशिषमुद्घोषयन्ति तथा जाने देवतायतनमुपसर्पति पाशपाणिः, तद् विसर्जयत माम् । अपरथा पुनरप्ययं दुरात्मा मयि कामपि यातनामाधास्यति । अहं च साम्प्रतं विगतशोकपरिच्छदः प्रत्युपकारविद् षमपि प्रथयितुमनलम्भूष्णुः। ततो यदि
मित्रानन्द- (कान बन्द कर) हे सिद्धराज! इस प्रकार औचित्य का अतिक्रमण करके मुझको द:खी न करें। उदररूपी घट की पूर्तिमात्र में संलग्न और तेजोहीन (हमारे जैसे) वणिक् पृथ्वीलोक के वासियों के लिए स्पृहणीय वैभव से सम्पन्न आप जैसे सिद्धराजों द्वारा कहे गये कर्णकुहररूपी सदन में अमृतवर्षा करने वाले इस पुरन्दरोचित चाटुकर्म (प्रशंसावचन) के पात्र नहीं हैं।
(नेपथ्य में) आपका कल्याण हो, सभी दिशाओं में आपका सुयश फैले, आपकी जलसम्पदा अथवा प्रतिष्ठा में कभी किसी प्रकार की बाधा न हो, आपके सुयश से सभी दिशाएँ विकसित कुमुदिनी की कान्ति जैसी कान्ति से युक्त हों और सभी तपस्वियों के पुण्यमय तपोबल से आप कल्पान्तपर्यन्त जीवित रहें।।११।।
पुरुष-(सुनकर काँपते हुए) जिस प्रकार प्रसन्नता के कारण प्रवाहित उष्ण अश्रुधारा से अवरुद्ध (रूंधे हुए) कण्ठकुहर वाले ये घोरघोणप्रभृति तपस्वीजन मधुर एवं गम्भीर आशीर्वादात्मक उद्घोष (स्तुति) कर रहे हैं, उससे प्रतीत हो रहा है कि पाशपाणि मन्दिर की तरफ आ रहा है, अत: अब मुझे जाने दें, अन्यथा यह दुरात्मा मुझको पुन: कोई यातना दे देगा। इस समय तो शोकमुक्त होकर भी मैं आपका प्रत्युपकार कर पाने में असमर्थ हूँ, अत: यदि इस नीच और मूर्ख (पाशपाणि)
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