________________
33
द्वितीयोऽङ्कः द्रवेण मामभिलिम्प येन व्रणानि संरोहन्ति ।
(मैत्रेयस्तथाकरोति।) मित्रानन्दः- (सकौतुकम्) कथं क्षणादेव गात्रमशेषमप्यलक्षितव्रणसन्निवेशमजायत? (पुनः साश्चर्यम्) सोऽयमपरो भूर्भुवःस्वश्चेतश्चमत्कारकारी प्रभावातिशयः।
पुरुष:- (सहसा प्रणम्य) कारुण्यैकनिधान! विश्वजनतासन्तापनिर्वापना
पाथोद! त्रिजगत्प्रियङ्करगुणग्रामाभिरामोदय!। स्तोतुं यत्र न ते चरित्रविभवं वक्त्रैश्चतुर्भिः प्रभुब्रह्मा सोऽपि निसर्गदुर्गजडिमा को नामत (त्रास्म्यहम्)?।।१०।
(मित्रानन्दो लज्जया दिक्षु दृष्टिं निक्षिपति।) पुरुष:- (पुनरञ्जलिं बवा) इयन्तं कालमहमनङ्गदासः। साम्प्रतं पुनः प्राणदानवेतनाक्रीतः कल्पसहस्रावधि मित्रानन्ददासः। औषधि-वलय के द्रव से मेरे घाव पर लेप लगाओ, इससे घाव शीघ्र भर जाते हैं।
(मैत्रेय वैसा करता है।) मित्रानन्द- (कुतूहलपूर्वक) कैसे क्षणमात्र में ही सम्पूर्ण शरीर का घाव गायब हो गया? (पुन: आश्चर्यपूर्वक) यह तो पृथ्वी, अन्तरिक्ष एवं स्वर्ग–तीनों लोकों के चित्त को चमत्कृत करने वाला महाप्रभाव है।
पुरुष- (सहसा प्रणाम कर)
हे करुणा के एकमात्र सागर! हे जगत् के प्राणियों का सन्ताप हरने वाले मेघस्वरूप (मित्रानन्द) ! हे तीनों लोकों को आनन्दित करने वाले उत्कृष्ट गुणों के निधान! तुम्हारे चरित्र के वैभव का तो ब्रह्मा अपने चारों मुखों से भी स्तवन करने में असमर्थ हैं, तो फिर स्वभाव से ही वक्र और जड़ बुद्धि वाला मैं कौन हूँ? ।।१०।।
(मित्रानन्द लज्जा से दूसरी तरफ दृष्टि घुमा लेता है।)
पुरुष- (पुनः हाथ जोड़कर) अब तक तो मैं अनङ्गदास था, किन्तु अब प्राणदानरूप वेतन से खरीदा गया मैं सहस्रों युगों तक के लिए मित्रानन्ददास हो गया हूँ।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org