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कौमुदीमित्रानन्दरूपकम् सर्वाङ्गीणप्ररोहिणा वकीलपीडासम्भारेण प्रतिहताशेषेन्द्रियस्थानो निरीक्षितुमप्रभविष्णुः। किमपरं मन्दमपि वक्तुमनलम्भूष्णुरस्मि । तत् त्वरिततरं प्रकटय कस्याप्यनर्य्यस्य मन्त्रस्य वा तन्त्रस्य वा रत्नस्य वा प्रभावातिशयम् ।
मित्रानन्दः- (विमृश्य) मैत्रेय! कुतोऽपि शीतमम्भः समानय। मैत्रेयः- (निष्क्रम्य प्रविश्य च) तदिदमम्भः।। (मित्रानन्दः मणिसम्पर्केणाम्भः पवित्रयित्वा सर्वाङ्गीणं पुरुषमभिषिञ्चति।)
मैत्रेय:- कथमपसृताः सर्वतोऽपि गात्रतो वज्रकीलकोटयः? अहो! मनसोऽप्यभूमिः प्रभावातिशयो रत्नस्य !
पुरुष:- (क्षणं लोचने निमील्य सुखमास्ते। पुनर्मन्दस्वरम्) नितान्तशिशिरेणाम्भसा सर्वाङ्गीणमभिषिच्य सुचिरमभिवीजयत माम्।
(उभौ तथा कुरुतः।) पुरुष:- (क्षणमाश्वस्य) मैत्रेय ! अमुष्य कलाचीनिवेशितस्यौषधेर्वलयस्य
अङ्गों में गड़े हुए वज्रकील की अत्यधिक पीड़ा से आहत हुई समस्त इन्द्रियों वाला मैं देख पाने में भी समर्थ नहीं हूँ। और क्या कहूँ धीरे से बोलने में भी असमर्थ हूँ। अत: अतिशीघ्र किसी प्रभावशाली मन्त्र या तन्त्र या रत्न का प्रभाव दिखलाओ।
मित्रानन्द- (सोचकर) मैत्रेय! कहीं से शीतल जल ले आओ। मैत्रेय- (निकलकर और प्रवेश कर) यह है शीतल जल।
(मित्रानन्द मणि के सम्पर्क से जल को पवित्र करके उससे पुरुष के पूरे शरीर को अभिषिक्त करता है।)
मैत्रेय- क्या सम्पूर्ण शरीर से करोड़ों वज्रकील निकल गये? अहो! रत्न का प्रभाव तो कल्पना से भी परे है।
पुरुष- (क्षण भर के लिए आँख मूंद कर सुख का अनुभव करता है। पुन: मन्द स्वर में) अत्यन्त शीतल जल से मेरे समस्त अङ्गों को अभिषिक्त कर मुझको देर तक पङ्खा झलो।
(दोनों वैसा ही करते हैं।) पुरुष- (क्षण भर श्वास लेकर) मैत्रेय! अपनी कलाई में पहने हुए इस
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