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द्वितीयोऽङ्कः परमपि विधास्यतीति नावगच्छामि।
मैत्रेयः- अश्रोतव्यम् ! अश्रोतव्यम् ! (पुनरपवार्य) तेनामुना महात्मनोऽस्य प्रबन्येनाहमप्यन्तःशोकशङ्गना कीलितोऽस्मि। तद् विचिन्तय किमपि शल्यसमुद्धरणोपयिकम्।
मित्रानन्द:- अस्ति नः कुलक्रमागतः शल्यसमुद्धरणप्रथितमहिमा नाम पवित्रो मन्त्रः। परं कदाचिदप्यनिरूपितप्रत्ययः, अतो मे मनागमनः सन्देग्धि।
(नेपथ्ये) सत्यवाह! अञ्जा कोमुई संदिसेदि। (सार्थवाह! आर्या कौमुदी संदिशति।) मित्रानन्द:- (विलोक्य) कथमियं कुन्दलता? (मैत्रेयः ससम्भ्रममुत्थाय पुरुषं बृहतिकया प्रच्छादयति।)
(प्रविश्य) कुन्दलता- सत्यवाह! अज्जा कोमुई संदिसेदि।
कर पुन: इससे भी अधिक कुछ करे।
मैत्रेय- यह सुनने योग्य नहीं है, सुनने योग्य नहीं है। (पुन: मुँह घुमा कर) इस महापुरुष की इस दु:खद कथा को सुनकर मैं भी अन्तःशोकरूपी शङ्क से कीलित (पीड़ित) हो गया हूँ। अत: शल्यक्रिया का कोई उपाय सोचो।
मित्रानन्द- मेरे पास वंशपरम्परा से प्राप्त 'शल्यसमुद्धरणप्रथितमहिमा' नामक पवित्र मन्त्र है, परन्तु कभी प्रयोग न होने के कारण इसकी सफलता के विषय में मेरे मन में थोड़ा सन्देह है।
(नेपथ्य में) सार्थवाह! आर्या कौमुदी कुछ कह रही हैं। मित्रानन्द- (देखकर) क्या यह कुन्दलता है? (मैत्रेय घबड़ाहटपूर्वक उठकर पुरुष को उत्तरीय से ढंक देता है।)
(प्रवेश कर) कुन्दलता- सार्थवाह! आर्या कौमुदी कुछ कह रही हैं।
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