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कौमुदीमित्रानन्दरूपकम् मित्रानन्द:- किमादिशति भगवती ?
कुन्दलता- पडिच्छेदु एवं महप्पभावं मणिं सत्यवाहो। कयावि एस महंतं उवयारं करिस्सदि ।
(प्रतीच्छतु एतं महाप्रभावं मणिं सार्थवाहः। कदापि एष महान्तमुपकारं करिष्यति।) मित्रानन्द:- कुन्दलतिके! कीदृशमस्य प्रभावमुपवर्णयति कौमुदी?
___ (कुन्दलता कर्णे— एवमेव।) मित्रानन्द:- (सहर्षम्) साधु ! समयोचितमनुगृहीतोऽस्मि भगवत्या। एते वयमागता एव रहः किमपि भगवत्या सह पर्यालोचयितुम्।
___ (कुन्दलता निष्क्रान्ता।) मित्रानन्द:- महासत्त्व!
पदार्थः कोऽप्यनोऽपि स्थितः पुंसि लघीयसि।
महत्त्वक्षीबचित्तेषु महत्सु खलु नाति।।७।। मित्रानन्द- क्या कह रही हैं देवी कौमुदी?
कुन्दलता- इस महान् प्रभावशाली मणि को सार्थवाह ग्रहण करें। यह मणि कभी महान् उपकार करेगा। . मित्रानन्द-कुन्दलतिके! कौमुदी इस मणि का कैसा प्रभाव बता रही है?
(कुन्दलता कान में ऐसा ही।) मित्रानन्द- (प्रसन्नतापूर्वक) अति उत्तम! देवी ने उचित समय पर मुझको अनुगृहीत किया है। हम देवी कौमुदी के साथ एकान्त में कुछ विचार-विर्मश करने आ ही रहे हैं।
(कुन्दलता निकल जाती है।) मित्रानन्द- हे महात्मा!
किसी क्षुद्र पुरुष में भी कोई बहुमूल्य पदार्थ (गुण) वर्तमान हो सकता है और अपनी महत्ता के मद से उन्मत्त (तथाकथित) महापुरुषों में भी वह बहुमूल्य पदार्थ नहीं रह सकता है।।७।।
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