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कौमुदीमित्रानन्दरूपकम् दिव्यकण्ठिकया प्रसाधितकण्ठपीठः केनापि व्यसनेन प्रकाशयितुमनुचितेन सततोपप्लुतान्तःकरणचूर्णविशेषप्रभावविहितरूपान्तरः प्रतिनिशमस्मिन् वरुणद्वीपे परिभ्रमामि ।
मैत्रेय:- अहो! समृद्धकुतूहलानुबन्धः प्रबन्धः।
पुरुष:- अद्य पुनर्निशीथे सान्तःपुरेण क्रीडार्थमितस्ततः स्वैरं विहरता क्रूरचेतसा प्रचेतसा समुपलभ्य 'सततमसूर्यम्पश्यमस्मदन्तःपुरकामिनीजनमभिलाषुकः परिभ्राम्यसि' इत्यभिदधानेन कण्ठपीठतः कण्ठिकामाच्छिद्य बब्वा च स्फुटं दोःकन्धरम् ...।
मैत्रेय:- (सकम्पम्) ततः किं कृतम् ?
पुरुष:- (सदैन्यम्) पुरन्दरेणाप्यविषह्यपीडाभिर्निशातकोटिभिर्बहुकीलकोटिभिः स्वयमिहाऽऽनीय प्रत्यङ्गं कीलितोऽस्मि।
मित्रानन्द:-- इदानीं प्रचेताः क्व वर्तते?
पुरुष:- क्वचिदपि कूले सङ्क्रीडते। प्रतिनिवृत्तः पुनः किमप्यतः कल्पलता नामक दिव्य माला से सुशोभित कण्ठ वाला, किसी कारणवश, जो बतलाना उचित नहीं है, सतत उद्विग्न अन्त:करण वाला और चूर्णविशेष के प्रभाव से रूप बदल लेने वाला मैं प्रत्येक रात्रि में इस वरुणद्वीप पर भ्रमण करता हूँ।
मैत्रेय- अहो! अत्यन्त कौतूहलपूर्ण कथा है।
पुरुष- आज पुन: रात्रिकाल में रमण करने हेतु रमणियों के साथ इधर-उधर भ्रमण करते हुए क्रूरहृदयी प्रचेता (पाशपाणि) ने मुझे पकड़ कर ‘कभी सूर्य को भी न देखने वाली मेरे अन्त:पुर की सुन्दरियों की अभिलाषा करते हुए घूम रहे हो' यह कहते हुए मेरे कण्ठ से माला छीनकर और मुझे बाँधकर मेरा कन्धा पीट-पीट कर फोड़ दिया।
मैत्रेय- (काँपते हुए) उसके बाद क्या किया?
पुरुष-(दीनतापूर्वक) पाशपाणि ने ही स्वयं यहाँ लाकर असह्य पीड़ादायक अत्यधिक नुकीले असंख्य कील मेरे अङ्ग-अङ्ग में ठोंक दिये हैं।
मित्रानन्द- इस समय पाशपाणि कहाँ है? पुरुष- कहीं किसी सरोवर-तट पर रमण कर रहा है। न जाने वापस लौट
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