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द्वितीयोऽङ्कः
भवानर्हत्येव विज्ञातुम् । किमुत महत्तमेयं कथा श्रूयमाणाऽपि कातरचेतसां महान्तमातङ्कमावहति। न चानया प्रथितयाऽपि कुतोऽपि किमपि परित्राणम्।
मित्रानन्दः -
विधातुं सम्पदो हर्तुमापदश्च न निश्चयः । मनस्तु मे सदाऽप्यन्यदुःखसङ्क्रान्तिदर्पणः ।।६।। तदावेदयत -- के यूयम् ? कथं च दुःस्थावस्थापातिनः ?
पुरुषः- महाभाग ! रत्नकूटपर्वतनिवासी सिद्धश्रेणीमणिमुकुटविटङ्कमसृणीकृतपादपीठोऽहमनङ्गदासाभिधानो योनिसिद्धः ।
मित्रानन्द:- ततस्तत: ?
पुरुषः- त्रैलोक्यकामिनीजनमनः क्षोभैकतानया च कल्पलताभिधानया बतलाऊँगा। अतिमहत्त्वपूर्ण यह कथा सुनने मात्र से ही भीरु व्यक्ति के मन को अत्यधिक आतङ्कित कर देती है और इसको सुना देने पर भी कहीं से कोई छुटकारा मिलने वाला नहीं ।
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मित्रानन्द- हम किसी को सम्पन्न बनाने या किसी की विपत्ति को दूर करने में सफल हो सकेंगे या नहीं, यह तो निश्चित नहीं है, परन्तु हमारे मनोरूपी दर्पण में दूसरों का दुःख सर्वदा प्रतिबिम्बित हो उठता है । । ६ । ।
अतः बतलायें कि आप कौन हैं? और इस सङ्कट में कैसे पड़ गये ?
पुरुष – महाभाग! मैं रत्नकूटपर्वत का निवासी सिद्धसमूह के मणिमय मुकुट के शीर्षभाग से (उनके द्वारा झुककर चरणस्पर्श करते रहने के कारण) घिस कर चिकने चरणों वाला अनङ्गदास नामक 'सिद्ध' " हूँ । हुए मित्रानन्द- फिर उसके बाद ?
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पुरुष - त्रिलोक की कामिनियों में मनःक्षोभ की एकमात्र उत्पादिका
सिद्ध, यक्षाविद्याधरादि की ही भाँति दिव्यशक्तिसम्पन्न पुरुष है। आठ देवयोनियों में इसकी भी गणना की गयी है
विद्याधराऽप्सरोयक्षरक्षोगन्धर्वकिन्नराः ।
पिशाचो गुह्यकः सिद्धो भूतोऽमी देवयोनयः ।। अमरकोश, १/१/११ ।
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