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________________ २६ कौमुदीमित्रानन्दरूपकम् मित्रानन्दः - किमिदमश्रद्धेयम् ? भवतु, समीपीभूय जानीमः । पुरुष :- ( वेदनामभिनीय) अहह ! - मित्रानन्दः - आकारः स्मरसोदरस्तनुलतालक्ष्माणि विश्वत्रयीसाम्राज्यं प्रथयन्ति शंसति भुजा निर्वीरवर्जं जगत् । यद्वा वाङ्मनसां दृशां च न पदं किञ्चिन्नु तद् वर्त्तते यूयं सत्पुरुषा वयं च पथिकाः प्रष्टुं ततः कः क्रमः ? ।।४।। पुरुषः- ( मन्दस्वरम्) महाभाग ! चिन्तयन्त्युपकुर्वन्तः संस्तवं हृदि सस्पृहाः । निस्पृहाणां च को नाम कामः संस्तवचिन्तने ? । । ५ । । ततस्तमेनमिदानीं मद्वृत्तान्तमसंस्तुतोऽपि परोपकारैकरसिकः स भगवान् • मित्रानन्द — यह कैसा निन्दनीय कर्म है? अच्छा, समीप जाकर ज्ञात करते हैं। पुरुष - ( पीड़ा का अभिनय करके) आह ! मित्रानन्द- आपका आकार कामदेव सदृश मनोहर है, आपके शरीर में दिखाई पड़ने वाले चिह्न तीनों लोकों के आधिपत्य के सूचक हैं और आपकी भुजाएँ शेष संसार के वीरशून्यत्व को द्योतित कर रहीं हैं। यद्यपि आपकी यह दुरवस्था वाणी में व्यक्त, मन से कल्पना और आँखों से दर्शन करने योग्य नहीं है, तथापि आप एक महापुरुष हैं और हम एक (तुच्छ) पथिक, तो ऐसी दशा में हमारे द्वारा (इसका निदान सम्भव न होने से ) इस विषय में कुछ पूछने का क्या औचित्य है? ।।४।। पुरुष – (मन्द स्वर में ) महानुभाव ! स्वार्थसिद्धि की भावना से परोपकार करने वाले व्यक्ति तो उपकृत व्यक्ति द्वारा अपनी प्रशंसा सुनने की इच्छा अपने मन में रखते हैं, परन्तु निःस्वार्थभाव से परोपकार करने वालों को अपनी प्रशंसा के विषय में सोचने से भला क्या प्रयोजन ? ।। ५ ।। अतः मेरे वृत्तान्त से अनभिज्ञ और परोपकारमात्र में तत्पर आपको मैं अवश्य Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002080
Book TitleKaumudimitranandrupakam
Original Sutra AuthorRamchandrasuri
Author
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1998
Total Pages254
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Religion, & Culture
File Size8 MB
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