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द्वितीयोऽङ्कः पूर्वोपार्जितकर्मवर्मपटलप्रभ्रष्टदृष्टिक्रियो
नात्मानं न परं च पश्यति कृपापात्रं पुनः कौशिकः।।२।। मित्रानन्द:- (आकर्ण्य सभयम्) कस्यापि महौजसो दुःस्थावस्थोपनिपातप्रतिरुद्धाशेषशुभाऽशुभव्यापारस्यायं व्याहारः। तदेहि मैत्रेय ! देवतायतनस्य पाश्चात्यभागमवलोकयामः। ___मैत्रेयः- (विलोक्य सभयम्) कथमयं पुरुषः सहकारतरुणा सह वकीलैः कीलितोऽस्ति?
(ततः प्रविशति यथानिर्दिष्टः पुरुषः।) पुरुषः- कष्टं भोः! कष्टम्,
क्व सा सिद्धश्रेणिप्रणतिसुभगा खेचरदशा? · क्व चायं सण्टङ्कत्रिभुवनमनःशोकरसिकः?। न यो वाचः पात्रं भवति न दृशो नापि मनस
स्तमप्यर्थं क्रुद्धो हतविधिरकाण्डे घटयति।।३।। देखा? पूर्व सञ्चित कर्मरूपी कवच के आवरण से देखने (विचार कर पाने) में असमर्थ यह कौशिक (पाशपाणि) न तो अपनों पर कृपा करता है और न ही दूसरों पर।।२।।
मित्रानन्द-(सुनकर भयपूर्वक) यह दुरवस्था में पड़ जाने से अवरुद्ध हुए समस्त शुभाशुभ क्रियाकलाप वाले किसी महान् तेजस्वी व्यक्ति के शब्द हैं। तो आओ मैत्रेय! मन्दिर के पीछे देखते हैं।
मैत्रेय- (देखकर भयपूर्वक) यह पुरुष वज्रकील से आम के वृक्ष में गड़ा हुआ क्यों है?
(उसके बाद यथानिर्दिष्ट पुरुष प्रवेश करता है।) पुरुष- कष्ट है अरे! महान् कष्ट है ?
कहाँ तो वह सिद्धगण द्वारा अर्पित प्रणाम से सुखद (वैभवपूर्ण) आकाश में विचरण करने वाली आनन्दात्मिका अवस्था और कहाँ यह तीनों लोकों को मनस्ताप का अनुभव कराने वाला वज्रकील का बन्धन। विधाता भी अघटितघटनापटु हैं जो वाणी, चक्षु और मन के लिए सर्वथा अगोचर (कल्पनातीत) घटनाओं को घटित कर देते हैं।।३।।
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