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कौमुदीमित्रानन्दरूपकम्
(ततः प्रविशति मित्रानन्दो मैत्रेयश्च । )
मित्रानन्दः - ( मैत्रेयं प्रति) पश्य पश्य,
ग्लास्नुध्वान्तततिर्मुखेषु ककुभां, स्थास्नुः प्रतापोच्चयो, मीलत्युत्पलिनीवनं, कमलिनीखण्डं समुन्मीलति । दिक्चक्रमुन्मज्जति,
मज्जत्यम्बरवारिधावुडुगणो,
प्राचीं चुम्बति चण्डरोचिषि जगद् वैचित्र्यमालम्बते । । १ । । गृध्राक्ष :- 'भो भो अतिथी! भवद्भ्यां त्वरिततरमागन्तव्यम्' इति कुलपतिर्वा समादिशति ।
मित्रानन्दः - एते वयमागता एवेति गत्वा निवेदय कुलपतिपादेभ्यः । (गृध्राक्षो निष्क्रान्तः । ) (नेपथ्ये)
भाभिः कुङ्कुमसोदराभिरभितो देवे प्रभाणां प्रभौ धात्रीं लिम्पति शीर्णमुद्रनयनैः किं किं न दृष्टं जनैः ।
(तत्पश्चात् मित्रानन्द और मैत्रेय प्रवेश करते हैं ।)
मित्रानन्द – (मैत्रेय से) देखो देखो,
दिशाओं में व्याप्त अन्धकार क्षीण हो रहा है, सर्वत्र प्रकाशपुञ्ज प्रसारित हो रहा है, कुमुदिनी - समूह मुरझा रहा है, कमलदल प्रस्फुटित हो रहा है, नक्षत्रगण आकाशरूप समुद्र में डूब रहे हैं और सभी दिशाएँ प्रकाशित हो रही हैं, इस प्रकार प्रचण्ड किरणसमूह वाले भगवान् सूर्य के उदित होने पर यह संसार वैचित्र्य का आलम्बन कर रहा है, अर्थात् अत्यन्त मनोहारी प्रतीत हो रहा है । । १ ॥
गृध्राक्ष - हे हे अतिथियो ! आप शीघ्र आयें- ऐसा कुलपति आपको आदेश दे रहे हैं।
मित्रानन्द — कुलपति महोदय से जाकर कहो कि हम आ ही रहे हैं। ( गृध्राक्ष निकल जाता है | )
(नेपथ्य में)
प्रकाश के स्वामी सूर्यदेव द्वारा पृथ्वी को सर्वतः कुङ्कुमसदृश आभा से ि करते समय (प्रभात काल में ) थकी और अधमुँदी आँखों से मैंने क्या-क्या नहीं
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