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________________ ।। अथ द्वितीयोऽङ्कः।। (ततः प्रविशति गृध्राक्षः।) गृध्राक्ष:- (उच्चैःस्वरम्) भो भो आश्रमवासिनः ! स्वयं वः कुलपतिः समादिशति-अद्य खलु सान्तःपुरः पाशपाणिः सङ्क्रीडितुमिह समायातवान्, ततः सर्वैरपि कुश-प्रसून-समिधः समादाय पुरुषैरहोरात्रमेकमुटजाभ्यन्तर एव स्थातव्यम् । (नेपथ्ये) यदादिशति कुलपतिः तदनुतिष्ठामः। गृध्राक्ष:- (विचिन्त्य) मकरन्दस्यापि द्रविणमपहर्त्तव्यमेव, ततस्तावप्यज्ञातवरुणद्वीपव्यवहारावतिथी विशेषतो निवारयामि । (उच्चैःस्वरम्) भो भोः तपोधना:! तावतिथी क्वचिदपि तिष्ठत इति जानीत । (नेपथ्ये) एतौ तौ देवतायतनजगत्यां तिष्ठतः। द्वितीय अङ्क (तत्पश्चात् गृध्राक्ष प्रवेश करता है।) गृध्राक्ष- (उच्च स्वर में) हे हे आश्रमवासियो! आपके कुलपति स्वयं आदेश दे रहे हैं कि आज पाशपाणि वरुण देव अन्त:पुर-सहित केलि करने हेतु आये हैं, अतः सभी पुरुष कुश, पुष्प एवं समिधाएँ लेकर एक दिन-रात कुटी के भीतर ही रहें। (नेपथ्य में) कुलपति जो आदेश दे रहे हैं, वही करते हैं। गृध्राक्ष- (सोचकर) मकरन्द के भी धन का अपहरण करना ही है, अत: वरुणद्वीप के व्यवहार से अनभिज्ञ उन दोनों अतिथियों को भी विशेषरूप से रोकता हूँ। (उच्च स्वर में) अरे अरे तपस्वियो! पता लगाओ कि वे दोनों अतिथि कहाँ हैं? (नेपथ्य में) ये दोनों अतिथि मन्दिर के प्राङ्गण में हैं। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002080
Book TitleKaumudimitranandrupakam
Original Sutra AuthorRamchandrasuri
Author
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1998
Total Pages254
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Religion, & Culture
File Size8 MB
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