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________________ प्रथमोऽङ्कः (सरोमाञ्चम्) आर्ये! मयाऽपि धनं जीवितं च तवोपनीतम्, मित्रानन्द:अतस्त्वमपि यदभिरुचितं तद् विदध्याः । कौमुदी - ताऽवस्सं अहिप्पायाणुरोहेण अहं पि सव्वं करिस्सामि । दोणि उण लहु मिल्लेहिं (ह) दविणजायं, जेण बाहिं नीहरामो । २१ (तदवश्यमभिप्रायानुरोधेनाहमपि सर्वं करिष्यामि । द्वौ पुनः लघु मुञ्चतं द्रविणजातम्, येन बहिर्निः सरामः । ) (तथा कृत्वोभौ निर्गच्छतः । ) कुलपति:- वत्स मित्रानन्द ! परिणतवयसो वयं कृतप्रायोपवेशननिश्चयाः । इयं च प्ररूढप्रौढयौवना स्वानुरूपं पतिमनासादयन्ती ताम्यति वराकी पुत्री मे कौमुदी । तदस्याः पाणिग्रहणेन सफलयितुमर्हसि मर्त्यलोकावतारम् । मित्रानन्दः— (सरोमाञ्चम् ) भगवन्! कोऽयमस्मास्वज्ञातकुल- शीलेषु प्रसादातिरेकः ? कौमुदी - (स्वगतम्) पभाए अप्पेमि एदस्स किं पि सप्पहावं रयणं जेण वीसंभं करेदि । (प्रभातेऽर्पयामि एतस्य किमपि सप्रभावं रत्नं येन विश्रम्भं करोति । ) मित्रानन्द — (रोमाञ्चित होकर ) आर्ये! मैने भी अपना धन और जीवन तुमको अर्पित कर दिया, अत: तुम भी जैसा उचित समझो वैसा करो । कौमुदी - तब तो मै अवश्य ही आपके अभिप्रायानुसार सब कार्य करूँगी । आप दोनो शीघ्र धन रख दें, जिससे हम बाहर निकल सकें। (वैसा करके दोनों बाहर निकल जाते हैं ।) कुलपति — पुत्र मित्रानन्द ! अत्यन्त वृद्ध हम अब मरणपर्यन्त अन्नजल त्यागने का निश्चय कर चुके हैं और मेरी नवयौवना पुत्री स्वगुणानुरूप पति को प्राप्त न कर पाने के कारण खिन्न रहा करती है, अतः इसका पाणिग्रहण कर तुम मेरे पृथ्वी पर जन्मग्रहण को सफल करो । मित्रानन्द — (रोमाञ्चसहित ) भगवन्! अज्ञात कुल-शील वाले हमारे ऊपर इतनी कृपा क्यों ? Jain Education International कौमुदी - ( मन ही मन ) प्रातः काल इसको कोई प्रभावशाली रत्न प्रदान करूँगी, जिससे इसको मुझ पर विश्वास हो जाये । For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002080
Book TitleKaumudimitranandrupakam
Original Sutra AuthorRamchandrasuri
Author
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1998
Total Pages254
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Religion, & Culture
File Size8 MB
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