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________________ १० कौमुदीमित्रानन्दरूपकम् ___मैत्रेय:- (सभयमात्मगतम्) कथमुत्थानसमयः कुलपते:? (प्रकाशम्) भगवन्! एतावत्यपि सार्थवाहप्रयोजने किंनिमित्तोऽयं कालविलम्बः? गजपाद:- (कुलपतिं प्रति सकैतवम्) यदभिधत्ते सार्थवाहस्तदस्तु। कुलपतिः- (मित्रानन्दं प्रति सविषादमिव) भवत्प्रेमाचेतसो वयं किं नानुतिष्ठामः? तदुत्तिष्ठ, स्वयमेव विमुञ्चोटजाभ्यन्तरे स्वमुद्रामुद्रितं द्रविणजातम्। वत्से कौमुदि ! दर्शय सार्थवाहस्योटजाभ्यन्तरम् । कौमुदी- इदो इदो सत्थवाहे ! (इत इतः सार्थवाही !) (उभौ मध्यप्रवेशं नाटयतः।) कौमुदी- (सकपटम्) अज्जउत्त! (पुन: सलज्जम्) सत्यवाह ! अस्थि बहु मंतिदव्वं, परं दाणि नावसरो। एदं खु संखेवेण मंतेमि-अप्पा मए तुह समप्पिदो, अओ वरं जं ते पडिहासइ तं करिज्जासु। (आर्यपुत्र!, सार्थवाह ! अस्ति बहु मन्त्रयितव्यम्, परमिदानीं नावसरः। एतत् खलु सङ्केपेण मन्त्रयामि-आत्मा मया तुभ्यं समर्पितः, अतः परं यत् ते प्रतिभासते तत् क्रियताम् ।) मैत्रेय- (भयपूर्वक मन ही मन) क्या यह कुलपति के यज्ञमण्डप में जाने का समय है? (प्रकटरूप से) भगवन्! सार्थवाह के इतने छोटे से कार्य में इतना अधिक विलम्ब क्यों? गजपाद- (कुलपति से धूर्ततापूर्वक) सार्थवाह जो कहता है, वही हो। कुलपति- (मित्रानन्द से विषादपूर्वक) आपके प्रेम से आर्द्र चित्त वाले हम क्या नहीं कर सकते? तो आप उठिए और अपने मुद्राङ्कित धन को कुटिया के भीतर रख आइये। पुत्रि कौमुदि ! सार्थवाह को कुटिया का भीतरी भाग दिखावो। कौमुदी- इधर से इधर से सार्थवाह! - (दोनों भीतर प्रवेश का अभिनय करते हैं।) कौमुदी- (कपटपूर्वक) आर्यपुत्र! (पुनः लज्जित होकर) सार्थवाह! आप से बहुत बात करनी है, किन्तु अभी समय नहीं। संक्षेप में इतना ही कहती हूँ कि मैने स्वयं को आपको समर्पित कर दिया। अब आप जो उचित समझें वह करें। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002080
Book TitleKaumudimitranandrupakam
Original Sutra AuthorRamchandrasuri
Author
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1998
Total Pages254
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Religion, & Culture
File Size8 MB
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