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________________ १९ प्रथमोऽङ्कः (प्रविश्य तुन्दिलः सर्वमुपनयति।) कुन्दलतिका- अय्ये! एदस्स निअदइअस्स, नहि नहि अदिधिणो विधेहि आदिधेइं। (आयें! एतस्य निजदयितस्य, नहि नहि अतिथेर्विधेहि आतिथेयीम् ।) (कौमुदी कृतकसात्त्विकभावान् नाटयन्ती आतिथ्यं प्रथयति।) कुलपतिः- वत्से! कोऽयमपूर्वोऽतिथिदर्शनेन प्रतिभयप्रथितः स्वेदकम्पोपप्लवः? ततः स्वस्थीभूय सर्वमप्याचर। अयं खलु ते प्राणितस्यापि स्वामी, किमङ्ग! पुनरपरासं क्रियाणाम्? मित्रानन्द:- (सानन्दं मैत्रेयं प्रति) सुमेधा निश्चितं वेधाः साधूनामानुकूलिकः। जाने यानस्य भङ्गोऽयमस्माकं श्रेयसी क्रिया।।१९।। (नेपथ्ये) भो भो आश्रमकर्मपटवो बटवः! प्रमार्जयत होमगृहाङ्गणानि, प्रज्वालयत जातवेदसः, सन्निधापयत समिधः, ननु इदानीं कुलपतेः प्रदोषसन्ध्यासवनसमयः। (तुन्दिल प्रवेश करके सब कुछ लाता है।) कुन्दलतिका- आयें! अपने इस प्रिय अतिथि का आतिथ्य मत करो। (कौमुदी बनावटी सात्त्विक भावों का अभिनय करती हुई, आतिथ्य सम्पन्न करती है।) कुलपति- पुत्रि! विशिष्ट अतिथि के दर्शन से भय के कारण उत्पन्न होने वाला यह अत्यधिक पसीना और कम्पन किस हेतु? अत: स्वस्थ (प्रसन) होकर सब कार्य सम्पन्न करो। यह तो तुम्हारे प्राणों का भी स्वामी है, तुम्हारे दूसरे कार्यों के विषय में तो कहना ही क्या? मित्रानन्द- (आनन्दपूर्वक मैत्रेय से) ज्ञानी विधाता अवश्य ही सज्जनों के लिए अनुकूल (हितकर) हैं। (इसीलिए) मुझे ऐसा प्रतीत होता है कि नौका का डूबना हमारे लिए श्रेयस्कर ही हुआ।।१९।। (नेपथ्य में) अरे अरे आश्रमकर्म में दक्ष बालको! होमस्थल को साफ करो, यज्ञाग्नि प्रज्वलित करो और समिधाएँ एकत्रित करो, (क्योंकि) अब कुलपति के सन्ध्याकालिक होम का समय हो गया है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002080
Book TitleKaumudimitranandrupakam
Original Sutra AuthorRamchandrasuri
Author
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1998
Total Pages254
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Religion, & Culture
File Size8 MB
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