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________________ कौमुदीमित्रानन्दरूपकम् कौमुदी - ( तिर्यगवलोक्य स्वगतम्) कटरि ! अंगचंगिमा, अहो! विलासविअड्डिमा, अरिरि ! सुहवत्तणं । (पुनः साश्चर्यम्) [ सहलोए] दस्स दंसणेण मणुस्सजम्मो | (पुनः सदुःखम् ) ईदिसो वि तादस्स सिणेहेण मए वावाए अव्वो?, घी धी! भुवणरयणविणासणं मे जीविदनिम्माणं । १८ ( कटरि! अङ्गचङ्गिमा, अहो! विलासवैदग्ध्यम्, अरेऽरे ! सुभगत्वम् । [ सफलमे] तस्य दर्शनेन मनुष्यजन्म । ईदृशोऽपि तातस्य स्नेहेन मया व्यापादयितव्यः ?, धिग् धिग्! भुवनरत्नविनाशनं मे जीवितनिर्माणम् । ) मित्रानन्दः - (अपवार्य साभिलाषं मैत्रेयं प्रति ) अधिकुचतटं पौष्पं दाम श्रुती किसलार्चिते बिसवलयितौ पाणी श्रोणीलता रसनाञ्चिता । तदपि च वपुर्लक्ष्मीरस्याः स्फुरत्यपदं गिरां प्रकृतिसुभगे पात्रे वेषो यदेव तदेव वा ।। १८ ।। अर्धोऽर्घः । कुलपतिः - कोऽत्र भोः ? पाद्यं पाद्यम्, कौमुदी - (तिरछी दृष्टि डालकर मन ही मन ) हाय रे ! (इसका) अङ्गसौष्ठव, वाह रे! (इसका) सुन्दर हावभाव और अरे रे ! (इसका ) चारुत्व। (पुनः आश्चर्यपूर्वक) इसके दर्शन से मेरा मनुष्यजन्म सफल हो गया। ऐसा (गुणवान् नवयुवक ) भी पिताजी के ( प्रति मेरे) स्नेहभाव (आदरभाव) के कारण मेरे द्वारा मारा जायेगा ? धिक्कार है! धिक्कार है! जगत् के रत्नभूत (प्राणियों) का विनाश करने वाले मेरे जीवन को । मित्रानन्द - ( दूसरी तरफ मुँह घुमाकर आसक्तिपूर्वक मैत्रेय से ) इस कौमुदी के स्तनतट पर पुष्पमाला लटक रही है, इसके कान पल्लव ( स्वरूप आभूषण) से सुशोभित हो रहे हैं, कलाइयाँ कमलनाल के कङ्गन से युक्त हैं और विशाल नितम्बस्थल करधनी से अलङ्कृत है, फिर भी इसके शरीर की शोभा ऐसी झलक रही है जिसका वर्णन नहीं किया जा सकता। निसर्गसुन्दर शरीर पर कोई भी वेश-भूषा हो, सबके सब उस सौन्दर्य का सम्पोषण ही करते हैं ।। १८ ।। कुलपति - अरे ! यहाँ कौन है? पादोदक लाओ, पादोदक, अर्घ लाओ, अर्घ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002080
Book TitleKaumudimitranandrupakam
Original Sutra AuthorRamchandrasuri
Author
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1998
Total Pages254
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Religion, & Culture
File Size8 MB
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