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________________ प्रथमोऽङ्कः १७ शर्मणो भगवतः पांशुप्रायेषु मर्त्यकीटानां विभवेषु को नाम कामः सम्भवति? तद् व्रजामि युष्मत्प्रभावप्रत्यस्तप्रत्यूहव्यूहः स्वपुरीम्। कुलपतिः- (सप्रश्रयमिव) शिवास्ते पन्थानः। (वणिग् निष्क्रान्तः।) मित्रानन्द:- भगवन्! सफलतां प्रयातु मे प्रार्थनालेशः। (प्रविश्य) कुन्दलता- [भगवन्!] कौमुदी प्रणमति। मित्रानन्दः- (मैत्रेयं प्रति) सैवेयं वनिता यांदोलाधिरूढामपश्याम। (पुनः साश्चर्यम्) केयमनभ्रा नेत्रोत्पलानां सुधावृष्टिः? कुलपति:- वत्से कौमुदि ! समानवयःशीलाऽऽकारधारिणः सार्थवाहतनयस्यास्य स्वयं प्रथय महतीमातिथेयीम्। तपस्या से स्वर्ग और मोक्ष को प्राप्त कर लेने वाले आदरणीय आपकी मर्त्यलोक के कीड़ों (मनुष्यों) के मलिन (तुच्छ) धन के प्रति लिप्सा कैसे सम्भव है? अत: अब आपके प्रभाव (प्रसाद) से नष्ट हुए विघ्नसमूह वाला मैं अपने नगर को जा रहा हूँ। __कुलपति- (स्नेह-सा प्रकट करते हुए) तुम्हारा मार्ग कल्याणमय हो (यात्रा शुभ हो।)। (व्यापारी निकल जाता है।) मित्रानन्द- भगवन् ! मेरी छोटी सी प्रार्थना सफल (स्वीकार) हो। (प्रवेश कर) कुन्दलता- भगवन्! कौमुदी प्रणाम कर रही है। मित्रानन्द- (मैत्रेय से) यह वही युवती है, जिसको हमने झूले पर बैठी हुई देखा था। (पुन: आश्चर्यपूर्वक) विना बादलों के ही नयनकमलों में अमृतवर्षा करने वाली यह कौन है? कुलपति- पुत्रि कौमुदि! समान आयु, स्वभाव और आकार वाले इस सार्थवाहपुत्र का महान् आतिथ्य (स्वागत) तुम स्वयं करो। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002080
Book TitleKaumudimitranandrupakam
Original Sutra AuthorRamchandrasuri
Author
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1998
Total Pages254
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Religion, & Culture
File Size8 MB
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