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________________ १६ . कौमुदीमित्रानन्दरूपकम् मैत्रेय:- भगवन् ! असञ्जातपाणिग्रहण एवायं सार्थवाहसूनुः । कुलपति:- (विमृश्य) काऽत्र भोः तापसीषु? (प्रविश्य तापसी प्रणमति।) कुलपति:- वत्से कुन्दलतिके! द्रुततरमालय कौमुदीम्। (तापसी निष्क्रान्ता ।) (प्रविश्य कृतोष्णीषः) वणिग्- भगवन् ! प्राप्ता देशान्तरादपरे सहायाः, तदुपनय न्यासीकृतं वित्तम्। गजपाद:- (सावहेलम्) यथैव त्वया मुक्तं तथैवोटजाभ्यन्तरे गत्वा गृहाण। (वणिग् मध्यतो वित्तमादाय कुलपति प्रणमति।) कुलपति:- वत्स! यथाबद्धमेव प्राप्तं त्वया द्रविणम्? वणिग्- किमिदमनात्मोचितमुच्यते? दुस्तपतपःपरिकलितस्वर्गाऽपवर्गमैत्रेय- भगवन् ! यह सार्थवाहपुत्र अविवाहित ही है। कुलपति- (सोचकर) अरे! यहाँ कोई तापसी है? (तापसी प्रवेश करके प्रणाम करती है।) कुलपति- पुत्रि कुन्दलतिके! कौमुदी को अतिशीघ्र बुलाओ। (तापसी निकल जाती है।) (पगड़ीधारी प्रवेश करके) व्यापारी- भगवन्! मेरे अन्य सहायक (व्यापारीगण) दूसरे देश में मिल गये, अत: धरोहरस्वरूप रखा हुआ (हमारा) धन (आप) ले आयें। गजपाद- (अवहेलनापूर्वक) तुमने जैसे (जिस अवस्था में) रखा था वैसे ही कुटी के भीतर जाकर ले लो। (व्यापारी भीतर से धन लेकर कुलपति को प्रणाम करता है।) कुलपति-वत्स! क्या तुमने धन को जिस अवस्था में रखा था, उसी अवस्था में प्राप्त कर लिया? व्यापारी- क्यों इस प्रकार अपने गुणों के विपरीत बोल रहे हैं? कठिन Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002080
Book TitleKaumudimitranandrupakam
Original Sutra AuthorRamchandrasuri
Author
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1998
Total Pages254
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Religion, & Culture
File Size8 MB
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