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कौमुदीमित्रानन्दरूपकम् मैत्रेय:- भगवन् ! असञ्जातपाणिग्रहण एवायं सार्थवाहसूनुः । कुलपति:- (विमृश्य) काऽत्र भोः तापसीषु?
(प्रविश्य तापसी प्रणमति।) कुलपति:- वत्से कुन्दलतिके! द्रुततरमालय कौमुदीम्।
(तापसी निष्क्रान्ता ।)
(प्रविश्य कृतोष्णीषः) वणिग्- भगवन् ! प्राप्ता देशान्तरादपरे सहायाः, तदुपनय न्यासीकृतं वित्तम्। गजपाद:- (सावहेलम्) यथैव त्वया मुक्तं तथैवोटजाभ्यन्तरे गत्वा गृहाण।
(वणिग् मध्यतो वित्तमादाय कुलपति प्रणमति।) कुलपति:- वत्स! यथाबद्धमेव प्राप्तं त्वया द्रविणम्? वणिग्- किमिदमनात्मोचितमुच्यते? दुस्तपतपःपरिकलितस्वर्गाऽपवर्गमैत्रेय- भगवन् ! यह सार्थवाहपुत्र अविवाहित ही है। कुलपति- (सोचकर) अरे! यहाँ कोई तापसी है?
(तापसी प्रवेश करके प्रणाम करती है।) कुलपति- पुत्रि कुन्दलतिके! कौमुदी को अतिशीघ्र बुलाओ।
(तापसी निकल जाती है।)
(पगड़ीधारी प्रवेश करके) व्यापारी- भगवन्! मेरे अन्य सहायक (व्यापारीगण) दूसरे देश में मिल गये, अत: धरोहरस्वरूप रखा हुआ (हमारा) धन (आप) ले आयें।
गजपाद- (अवहेलनापूर्वक) तुमने जैसे (जिस अवस्था में) रखा था वैसे ही कुटी के भीतर जाकर ले लो।
(व्यापारी भीतर से धन लेकर कुलपति को प्रणाम करता है।)
कुलपति-वत्स! क्या तुमने धन को जिस अवस्था में रखा था, उसी अवस्था में प्राप्त कर लिया?
व्यापारी- क्यों इस प्रकार अपने गुणों के विपरीत बोल रहे हैं? कठिन
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