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________________ १५ प्रथमोऽङ्कः (पुनः कुलपतिं प्रति) अशेषमपि कल्याणमस्माकं कुलपतिमिश्राः सम्पादयिष्यन्ति। साम्प्रतं पुनरिदमेवातिथेयमर्थयामहे। कुलपति:- (ससम्भ्रमम्) किं तत्? मित्रानन्दः- अस्ति नः कियानपि द्रविणसारः, तं तावदात्मसात् कुर्वतां कुलपतिपादाः यावद् वयं स्वनगरं प्रति प्रतिष्ठामहे। गजपादः कोऽत्र भोः? (प्रविश्य) खर्वशाख:- भगवन् ! एषोऽस्मि। (गजपादः खर्वशाखस्य कर्णे-एवमेव।) (खर्वशाखो निष्क्रान्तः।) कुलपति:- महाभाग! निर्विण्णा वयं भिन्नयानपात्राणां वणिजां निक्षेपसंरक्षणेन, तदियमास्तां कथा। सञ्जातपाणिग्रहणोऽसि न वा? येन तदुचितां कामप्यातिथेयीमाचरामः। (पुन: कुलपति से) आप हमारा पूर्ण कल्याण करेंगे, किन्तु इस समय तो हम केवल इतना ही आतिथ्य चाहते हैं कि .... कुलपति- (घबड़ाहट सहित) वह क्या ? मित्रानन्द- हमारे पास कुछ धन है, उसको तब तक आप अपने पास रखें, जब तक कि हम अपने घर नहीं लौट जाते। गजपाद- अरे! यहाँ कौन है? (प्रवेश कर) खर्वशाख– भगवन्! मैं हूँ। (गजपाद खर्वशाख के कान में ऐसा ही करो।) (खर्वशाख निकल जाता है।) कुलपति- महाभाग! भग्न नौका वाले व्यापारियों की सम्पत्ति का संरक्षण करते-करते हम खिन्न हो गये हैं, अत: अब यह कथा यहीं समाप्त हो। (आप हमको यह बतावें कि) आप विवाहित हैं या नहीं, जिससे हम तदनुरूप उचित आतिथ्य का सम्पादन कर सकें। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002080
Book TitleKaumudimitranandrupakam
Original Sutra AuthorRamchandrasuri
Author
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1998
Total Pages254
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Religion, & Culture
File Size8 MB
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