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________________ १४ कौमुदीमित्रानन्दरूपकम् कुलपति:- महाभाग! प्रशस्तलक्षणो भवान् नाऽऽस्पदं विपदाम्, अतः समुपार्जितप्रभूतद्रविणो ध्रुवं सङ्घटिष्यते ते परमप्रेमपात्रं मित्रं मकरन्दः। मैत्रेयः- यदादिशति कुलपतिस्तदस्तु। (नेपथ्ये) हंहो बटवः! प्रवर्तयत वर्णाश्रमजुषामतिथीनां सपर्यार्थं यथौचित्यं पशुविशसनानि। मित्रानन्द:- (अपवार्य सोद्वेगम्) मैत्रेय ! कोऽयमुभयलोकप्रतिपन्थी पापव्याहारः? धिक् तानमुष्य सुहृदो नरकैकमार्गान् यैः शास्तृभिः पशुवधोऽयमिहोपदिष्टः। तानप्यमून् मुनिमिषश्वपचान् विचारबन्ध्यान् धिगेव खलु यैरयमादृतश्च।।१७।। कुलपति- महाभाग! आप अत्यन्त भाग्यशाली होने के कारण इस विपत्ति से बच गये, अत: आपका परमप्रिय मित्र मकरन्द प्रभूत धन अर्जित करके आपसे अवश्य मिलेगा। मैत्रेय- कुलपति महोदय जैसा कह रहे हैं, वैसा ही हो। (नेपथ्य में) अरे अरे बालको! आश्रम में उपस्थित अतिथियों के यथोचित पूजन (सत्कार) हेतु पशुबलि की व्यवस्था करो। मित्रानन्द-(दूसरी तरफ मुँह घुमाकर उद्विग्नतापूर्वक) मैत्रेय! यह दोनों लोकों (इहलोक एवं परलोक) के लिए प्रतिकूल कैसा पापवचन है? धिक्कार है इस कलपति के इन नरकमात्रगामी सहचरों को और उन शास्त्रकारों को भी, जिन्होंने इस लोक में (अथवा ऐसे अवसरों पर) पशुवध का उपदेश दिया है। साथ ही उन विचारशून्य मुनिवेषधारी चाण्डालों को भी धिक्कार है जो उक्त शास्त्रवचनों का आदर करते (हुए पशुवध किया करते) हैं।।१७।। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002080
Book TitleKaumudimitranandrupakam
Original Sutra AuthorRamchandrasuri
Author
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1998
Total Pages254
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Religion, & Culture
File Size8 MB
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