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________________ प्रथमोऽङ्कः कुत्रत्योऽसि? किमर्थमद्य स भवानस्माकमत्राश्रमे सम्प्राप्तः? प्रथयामि सामसुभगांकामातिथेयीं त्वयि ।।१६।। मित्रानन्दः- (सविनयम्) भगवन्! कौतुकमङ्गलनगराधिवासिनः क्रमागताद्धतवैभवस्य जिनदासनाम्नः परमधार्मिकप्रकाण्डस्य वणिजो मित्रानन्दनामा सूनुरहम् । अयं चास्मत्पुरोहिततनयः शकुनमन्त्रकुशलो मैत्रेयः। उन्मीलितयौवनचाहं प्रभूतद्रविणोपार्जनाश्रद्धालुरतन्द्रालुना समानकुल-शील-विभवेन मकरन्दनाम्ना बालवयस्येन समं यानपात्रमधिरूढः ....। कुलपति:- सुपन्थाः समाश्रितस्तत्रभवता भवता। निजभुजदण्डाम्यां हि वणिजां द्रविणोपार्जनं मण्डनम्, न तु खण्डनम्। मित्रानन्द:- अवगाह्य च मध्यमुदन्वतो भगवतः प्रवहणे अविशरारुतामधिगतवति गृहीतस्वापतेयसारः कल्लोलान्दोलितं मैत्रेयेण साधू फलकमेकमधिरूढः सप्तभिरहोभिरहं पारमधिगतवान्। मकरन्दस्य तु किमपि वृत्तमिति न जानीमः। बतायें कि) आप कहाँ के रहने वाले हैं? आज हमारे आश्रम में किस हेतु पधारे हैं? और मै आपके प्रति कैसा सात्त्विक आतिथ्य प्रदर्शित करूँ ?।।१६।। मित्रानन्द- (विनयपूर्वक) भगवन् ! कौतुकमङ्गल नामक नगर के निवासी कुलक्रमप्राप्त अद्भुत समृद्धिशाली जिनदास नामक परमधार्मिक व्यापारी का मैं मित्रानन्द नामक पुत्र हूँ और यह हमारे पुरोहित का पुत्र एवं शुभाशुभ-सूचक मन्त्रों के प्रयोग में कशल मैत्रेय हैं। नवयौवनसम्पन्न मैं प्रभूत धनोपार्जन में तत्पर एवं परिश्रमी, समान कुल, शील एवं वैभवशाली मकरन्द नामक बालसखा के साथ नौका पर सवार हुआ.....। कुलपति- आदरणीय आप लोगों ने सन्मार्ग का ही अवलम्बन किया। क्योंकि, व्यापारियों द्वारा अपने बाहुबल (सामर्थ्य) से धनोपार्जन करना शोभनीय ही है, अशोभनीय नहीं। मित्रानन्द- और उसके बाद समुद्र के मध्य में पहुँच कर नौका के डूब जाने पर अपना अवशिष्ट धन लेकर मैत्रेय के साथ लहरों से आन्दोलित एक फलक (तख्त) पर सवार होकर सात दिनों में पार पहुँचा। मकरन्द का तो कोई समाचार नहीं जानता हूँ। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002080
Book TitleKaumudimitranandrupakam
Original Sutra AuthorRamchandrasuri
Author
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1998
Total Pages254
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Religion, & Culture
File Size8 MB
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