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विश्रम्भभ्रमदेणशावककुलव्यालेहनिर्लेपित
स्कन्धोर:- करपाद - भालतिलकः सोऽयं पुरस्तान्मुनिः ।। १५ ।।
कौमुदीमित्रानन्दरूपकम्
वामतश्चायं कुलपतेरेव भ्राता गजपादः
(ततः प्रविशन्ति कुलपतिर्गजपादप्रभृतयश्च तापसाः । ) तुन्दिल:- (अपवार्य) प्रभूतप्रधानधनाविवैतौ लक्ष्येते । कुलपतिः - तर्हि सुतरां नः सम्भ्रममर्हतः ।
(उभौ प्रणमतः । )
(सादरमिव) इदमासनमास्यताम् ।
गजपादः—
कुलपतिः - ( सप्रसादमिव मित्रानन्दं प्रति )
अस्तु स्वस्ति शुभोदयाय भवते सन्दृष्टयूयं वयं जाताः साम्प्रतमद्भुतामृतरसव्यासेकदृप्यदृशः ।
रहने वाले चटक पक्षियों (गौरैयों) के कलरव से मिश्रित हैं और जिनके कन्धे, हृदय, भुजा और ललाट का तिलक आश्वस्त होकर (आश्रम में) विचरण करने वाले मृगशावकों के टपकते हुए लार से लिप्त हो गये हैं- ऐसे ये मुनिवर सामने दिखलाई पड़ रहे हैं । । १५ ।।
और ये बायीं तरफ कुलपति के ही भाई गजपाद हैं।
(तत्पश्चात् कुलपति, गजपाद आदि तपस्विगण प्रवेश करते हैं ।) तुन्दिल - (दूसरी तरफ मुँह घुमाकर) ये अत्यधिक धनवान् प्रतीत होते हैं। कुलपति — तब तो हमें अत्यन्त शीघ्रतापूर्वक इनको विश्वास में ले लेना
चाहिए।
(दोनों प्रणाम करते हैं। )
गजपाद - (आदर सा प्रकट करते हुए) आप इस आसन पर बैठें। कुलपति - ( प्रसन्न से होकर मित्रानन्द से)
हे मङ्गलकारी (मित्रानन्द) ! आपका कल्याण हो, आपको देखकर हमारी आँखें इस समय अद्भुत अमृतरस की बूँदों से मदोन्मत्त हो गयी हैं । ( अत: आप
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