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प्रथमोऽङ्कः
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तुन्दिल:- महाभाग ! भगवतः पाशपाणेर्वरुणाभिधानोऽयं क्रीडाद्वीपः । सततं च सान्तः पुरः पाशपाणिरत्र क्रीडतीति ब्रह्मचारिणस्तपोधना एव प्रतिवसन्ति, न गृहमेधिनः । इदं च प्रशान्तविरोधाभिधानमाश्रमपदम् । घोरघोणो नाम कुलपतिः सततमधिवसति । तदागच्छत यूयम् । पश्यत ब्रह्माण्डभाण्डोदरसञ्चरिष्णुयशसः कुलपतेर्निः शेषकल्मषच्छिदालङ्कर्मीणां क्रमाम्भोजयुगलीम् । (सर्वे आश्रमाभिमुखमुपसर्पन्ति । )
(साश्चर्यम्) जीर्यत्कर्कटपच्यमानचरवः संरक्ष्यमाणोटजद्वारास्तर्णकपङ्क्तभिः शुककुलैरध्याप्यमानद्विजाः । एते ते स्थगयन्ति होमसुरभीहम्भापरीरम्भणस्फारोद्गारिभिरध्वरस्तवरवैर्दिङ्मण्डलीमाश्रमाः । । १४ । ।
मित्रानन्द:
तुन्दिल:
नासान्तस्थितलोचनो गुरुजटाजूटाटवीमेखला
नीडान्तः कलविङ्ककेलिकलहैर्व्यालोलमन्त्राक्षरः ।
तुन्दिल - महाभाग ! यह भगवान् पाशपाणि का 'वरुण' नामक क्रीड़ाद्वीप है और पाशपाणि यहाँ रमणियों के साथ सतत कामक्रीड़ा करते रहते हैं । यहाँ केवल ब्रह्मचारी तपस्वी ही रहते हैं, गृहस्थ नहीं और यह 'प्रशान्तविरोध' नामक आश्रम है। यहाँ घोरघोण नामक कुलपति सदैव निवास करते हैं। अतः आप लोग आवें और महायशस्वी कुलपति के समस्त पापों के धुल जाने से शोभित चरणकमलों को देखें । (सभी आश्रम की तरफ बढ़ते हैं ।)
मित्रानन्द - (आश्चर्यपूर्वक)
यह आश्रम ऐसा है जहाँ वृद्ध-असमर्थ पक्षियों के लिए चरु (जङ्गली चावल) पकाये जा रहे हैं, कुटियों के द्वारों पर बछड़ों का समूह मानो पहरा दे रहा है, तोतों का समूह द्विज बालकों को पढ़ा रहा है और होमार्थ पालित गायों के रँभाने के सम्पर्क से परिवर्धित और इसीलिए तार स्वर में उच्चारित वैदिक मन्त्रों की ध्वनि से सभी दिशाएँ गुञ्जित हो रही हैं । । १४ । ।
तुन्दिल- जिनके नेत्र नासिका के अन्त भाग तक फैले हुए हैं, जिनके द्वारा उच्चारित मन्त्र विशाल जटारूपी जङ्गल के मेखलास्वरूप घोंसले के भीतर
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