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________________ १० कौमुदीमित्रानन्दरूपकम् मैत्रेय:- कथमियमुत्तीर्णा दोलातः? मित्रानन्द:- न केवलमुत्तीर्णा, तरुभिस्तिरोधाय क्वचिदपि गता च। हा! हताः स्मः। अकाण्डक्रोधसंरुद्धचेतसा वेधसा कन्यारत्नमिदमुपदर्य त्वरिततरं तिरोधाय सत्यमस्माकमद्य यानपात्रभङ्गः कृतः। कुतः पुनरियमस्माभिरुपलभ्या ? (नेपथ्ये) स्वागतमतिथिभ्याम् । मैत्रेय:– कथमयं तापसः शब्दायते? (ततः प्रविशति तुन्दिलः।) (उभौ प्रणमतः।) तुन्दिल:- स्वस्ति यजमानाभ्याम् । मित्रानन्दः- मुने ! देशान्तरिणो वयमनभिज्ञा अत्रत्यवृत्तान्तस्य । तत् कथय कोऽयं द्वीपः? कथं च निर्मानुषप्रचारः? मैत्रेय- क्या यह झूले पर से उतर गयी ? मित्रानन्द- न केवल उतर गयी, अपितु वृक्षों की आड़ में छिपकर कहीं चली भी गयी। हाय! मारे गये। अकारण ही क्रोध करने से निरुद्ध चित्त वाले विधाता ने इस कन्यारत्न को दिखा कर और फिर शीघ्र ही गायब कर आज वस्तुतः हमारी नौका डुबो दी। अब फिर यह (युवती) हमको कहाँ मिलेगी? (नेपथ्य में) दोनों अतिथियों का स्वागत है। मैत्रेय- क्या यह कोई तपस्वी बोल रहा है? (तत्पश्चात् तुन्दिल प्रवेश करता है।) (दोनों प्रणाम करते हैं।) तुन्दिल– दोनों यजमानों का कल्याण हो। मित्रानन्द- हे मुनि! परदेशवासी हम दोनों यहाँ के वृत्तान्त से अनभिज्ञ हैं। अत: आप हमें बतलाइये कि यह कौन सा द्वीप है ? और यहाँ कोई मनुष्य क्यों नहीं दिखलायी पड़ रहा है ? Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002080
Book TitleKaumudimitranandrupakam
Original Sutra AuthorRamchandrasuri
Author
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1998
Total Pages254
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Religion, & Culture
File Size8 MB
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