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कौमुदीमित्रानन्दरूपकम्
(नेपथ्ये) करसंबंधं काऊण अंगपरिरंभणं अदितेहि।
न विडंबिज्जइ मित्तेहि कित्तिएहिं सरोरुहिणी?।।१०।। (करसम्बन्धं कृत्वा अङ्गपरिरम्भणमददानैः।
न विडम्ब्यते मित्रैः कियद्भिः सरोरुहिणी?।।) मित्रानन्दः- इदमपरमस्या वराक्याः किमपि वैशसम्। यत् किल पाणिग्रहणेऽपि पत्यङ्गपरिरम्भालाभः। (मैत्रेयं प्रति) क्षणं निक्षिप दिक्षु चक्षुषी। जानीहि कुतस्त्योऽयं परिदेवितध्वनिः?
मैत्रेय:- (विलोक्य) वयस्य! पश्य निकषा सहकारखण्डदोलाधिरूढां प्ररूढप्रौढयौवनाञ्चितां वनिताम्। मित्रानन्द:- (सवितर्कम्) लक्ष्मीः किं पितुरम्बुधेः प्रतिकलं कूलेषु सक्रीडते ? कन्या काऽपि किमस्य खेलति मुहुर्देवस्य यादःपतेः?
___ (नेपथ्य में) पहले अपनी किरणों के सम्पर्क से कमल को विकसित करके भी सायंकाल में उसको अपनी किरणों से आलिङ्गित न करने वाले सूर्य द्वारा क्या वह कमलिनी ठगी नहीं जाती? नायिकापक्ष में- पाणिग्रहण करके भी शरीर से आलिङ्गन न करने वाले कुछ (धूर्त) मित्रों (प्रेमियों) द्वारा नवयौवना वनिताएँ क्या छली नहीं जाती? ।।१०।।
मित्रानन्द- इस बेचारी का यह कुछ अलग प्रकार का ही दुःख है कि विवाह हो जाने पर भी इसको पति के आलिङ्गन का सुख नहीं मिल सका। (मैत्रेय से) क्षणभर के लिए चारों तरफ दृष्टि डालो और पता लगाओ कि यह रोदनध्वनि कहाँ से आ रही है?
मैत्रेय- (देखकर) मित्र ! समीप में ही आम्रवृक्ष के डालरूपी झूले पर बैठी हुई यौवन से परिपूर्ण तरुणी को देखो।
मित्रानन्द- (वितर्क करते हुए)
क्या यह लक्ष्मी है जो अपने पिता समुद्र के तट पर मधुर-मधुर क्रीड़ा कर रही है? अथवा यह वरुणदेव की कोई पुत्री है जो वारम्वार खेल (झूल) रही है?
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