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________________ प्रथमोऽङ्कः अस्तमयति पुनरुदयति पुनरस्तमुपैति पुनरुदेत्यर्कः। विपदोऽपि सम्पदोऽपि च सततं न स्थास्नवः प्रायः।।८।। तदेहि जानीमः कोऽयं द्वीपः? (इति परिक्रामतः।) मित्रानन्द:- (विलोक्य) कथमिदं पुरो देवतायतनम्? तदस्य जगत्यां स्थित्वा मानुषं किमपि विलोकयामः। मैत्रेयः- यथेदं सर्वतः काञ्चनमयं तथा जाने देवताविनिर्मितम्, मध्ये च भगवतः पाशपाणेः प्रतिनिधिर्दश्यते। (नेपथ्ये) नवकंतिमंडणाण वि मुत्ताणं सुत्तिसंपुडठिआणं। गुणसंगममलहंतीण निष्फलो जम्मसंरंभो।।९।। (नवकान्तिमण्डनानामपि मुक्तानां शुक्तिसम्पुटस्थितानाम् । गुणसङ्गममलभमानानां निष्फलो जन्मसंरम्भः ।।) मित्रानन्द:- अनुरूपंपतिमनासादयन्त्याः कस्या अपिलावण्यपुण्यवपुषः पक्षमलाक्ष्याः परिदेवितमिदम्। सूर्य अस्त होता है, उदित होता है, पुनः अस्त होता है और पुन: उदित होता है। इसी प्रकार विपत्तियाँ और सम्पत्तियाँ भी प्रायः सतत स्थायी नहीं रहतीं, अपितु आती-जाती रहती हैं।।८।। तो आओ ज्ञात करें कि यह कौन सा द्वीप है? (यह कहकर दोनों घूमते हैं।) मित्रानन्द-(देखकर) क्या यह सामने मन्दिर है? तो इसके प्राङ्गण में खड़े होकर किसी मनुष्य को देखते हैं। मैत्रेय-जिस प्रकार यह मन्दिर पूर्ण रूप से स्वर्णमय है, उससे प्रतीत होता है कि यह देवता द्वारा निर्मित है और इसके मध्य भाग में भगवान् पाशपाणि (वरुण) की प्रतिमा दिखलाई पड़ रही है। (नेपथ्य में) नवीन कान्ति से मण्डित होने पर भी शुक्तिसम्पुट में बन्द, अतएव गुण (सूत्र) का सम्पर्क प्राप्त न कर पाने वाले मोतियों का जन्मग्रहण निष्फल ही है।।९।। . मित्रानन्द- यह स्वगुणानुरूप पति को न प्राप्त कर पाने वाली लावण्य से विभूषित शरीर वाली किसी सुनेत्री (तरुणी) का विलाप है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002080
Book TitleKaumudimitranandrupakam
Original Sutra AuthorRamchandrasuri
Author
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1998
Total Pages254
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Religion, & Culture
File Size8 MB
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