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प्रथमोऽङ्कः शैलूषविद्यावैभवोपभोगेन। ततस्तां कामपि क्रियामनुतिष्ठ श्रेष्ठां यथा विश्रान्ताशेषविपदं श्रायसी सम्पदमासाद्य सततसन्निहितमित्र-कलत्र-स्वापतेयः सुचिरममन्दमानन्दमुद्वहामि।
सूत्रधारः- (साक्षेपम्) मार्ष ! संसारस्वरूपपरिज्ञानवैदग्धीबन्थ्य इव व्याहरसि। ननु -
अकृताखण्डधर्माणां पूर्वे जन्मनि जन्मिनाम्। सापदः परिपच्यन्ते गरीयस्योऽपि सम्पदः।।६।।
(नेपथ्ये) विवेकोपनिषदमभिहितवानसि।
सूत्रधार:- कथमयं मित्रानन्दभूमिकावाही नर्तकः शब्दायते? तदेहि मार्ष ! करणीयान्तरमनुतिष्ठामः।
(इति निष्क्रान्तौ।)
।।आमुखम्।। के कारण अशोभनीय (दुःखद) नटविद्या के वैभव के उपभोग से व्यथित हो गया हूँ। अत: किसी ऐसी श्रेष्ठ क्रिया (रूपक) का अनुष्ठान (प्रदर्शन) कीजिए जिससे मैं सकल-विघ्नहारिणी मोक्षरूपिणी सम्पत्ति को प्राप्तकर तथा सतत मित्र, भार्या एवं स्वजनों के साथ रह कर चिरकाल तक प्रचुर आनन्द का उपभोग कर सकूँ।
सूत्रधार-(क्रोधपूर्वक) मार्ष! संसार के वास्तविक स्वरूप के परिज्ञान में असमर्थ अज्ञानियों जैसी बातें कर रहे हो। सुनो
पूर्वजन्म में अखण्ड धर्माचरण न करने वाले प्राणियों की प्रभूत सम्पत्ति भी अतिशीघ्र विनष्ट हो जाया करती है।।६।।
(नेपथ्य में) तुमने बड़े ज्ञान की बात कही है।
सूत्रधार-क्या यह मित्रानन्द की भूमिका का निर्वाह करने वाला नट बोल रहा है? तो आओ मार्ष! अन्य अवशिष्ट कार्यों को सम्पन्न करें।
(दोनों निकल जाते हैं।)
आमुख।। १. टिप्पणी : नाटकादि के प्रारम्भ में नटी, विदूषक अथवा पारिपार्श्विक प्रस्तुत
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