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________________ कौमुदीमित्रानन्दरूपकम् प्रबन्धानाधातुं नवभणितिवैदग्ध्यमधुरान् कवीन्द्रा निस्तन्द्राः कति नहि मुरारिप्रभृतयः? ऋते रामानान्यः किमुत परकोटौ घटयितुं - रसान् नाट्यप्राणान् पटुरिति वितकों मनसि नः ।।३।। अपि च - प्रबन्या इक्षुवत् प्रायो हीयमानरसाः क्रमात् । कृतिस्तु रामचन्द्रस्य सर्वा स्वादुः पुरः पुरः।।४।। नट:- (सावहेलम्) भाव! परोपनीतशब्दार्थाः स्वनाम्ना कृतकीर्तयः। निबद्धारोऽधुना तेन विश्रम्भस्तेषु कः सताम्?।।५।। सूत्रधार:- माष! नास्य पर्यनुयोगस्य वयं पात्रम्। अत्रार्थे प्रबन्यविधानसमानकालाः सुमेधस एव प्रमाणम्। नट:-(सविषादम्) भाव! निर्विण्णोऽस्मि तेनामुनाऽपदे क्लेशावेशदुर्भगेन नये-नये शब्दों के दक्षतापूर्ण विन्यास से मधुर प्रबन्धों की रचना करने वाले मरारि प्रभृति कितने ही मननशील कविश्रेष्ठ हुए हैं, किन्तु नाट्य के प्राणस्वरूप रस की चरम अनुभूति करवाने में रामचन्द्र से अधिक पटु अन्य कोई नहीं हैऐसा मेरा विचार है।।३।। और भी प्रायशः अन्य प्रबन्धों की रसवत्ता (स्वादुत्व) इक्षु के समान क्रमशः क्षीण होती जाती है, किन्तु रामचन्द्र की कृतियों की रसवत्ता उत्तरोत्तर बढ़ती ही जाती है।।४।। नट-(तिरस्कारपूर्वक) भाव ! इस युग में जो कविगण दूसरों के शब्दार्थयुगल (काव्य) को अपने नाम से करके यश प्राप्त करने वाले हैं, ऐसे कवियों में सज्जनों का विश्वास (श्रद्धा) कैसे हो? ।।५।। सूत्रधार-मार्ष! इस कविकर्म की भर्त्सना करने की योग्यता हम लोगों में नहीं। इस (प्रबन्ध की उत्कृष्टता अथवा अनुत्कृष्टता के) विषय में तो प्रबन्धरचना के समकालिक सुधीजन ही प्रमाण हैं। नट-(विषादपूर्वक) भाव! असमय में (अनुचित स्थान पर) इस क्लेशाधिक्य Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002080
Book TitleKaumudimitranandrupakam
Original Sutra AuthorRamchandrasuri
Author
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1998
Total Pages254
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Religion, & Culture
File Size8 MB
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