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________________ XXXVIII कौमुदीमित्रानन्दरूपकम् हो सकती है, किन्तु कुल मिलाकर सन्ध्यङ्गों की संख्या ६५ है। हाँ, यदि किसी रूपक में किसी अङ्ग या अङ्गों का अनेक बार उपनिबन्ध किया गया हो और उनको अलग-अलग स्वतन्त्र रूप में लिया जाय तब तो रूपक-भेद से पूर्वसङ्कलित संख्या-६५ में वृद्धि भी हो सकती है। (घ) सन्ध्यादि की संख्या, विशेषतः सन्ध्यङ्गों की संख्या में ह्रास भी हो सकता है, यदि किसी सन्धि या सन्ध्यङ्ग की रसाभिव्यक्ति में कोई उपयोगिता न हो अथवा उसमें वह सन्धि या सन्ध्यङ्ग बाधक हो। अत एव आचार्य आनन्दवर्धन ने स्पष्ट कहा है सन्धिसन्ध्यङ्गघटनं रसाभिव्यक्त्यपेक्षया। न तु केवलया शास्त्रस्थितिसम्पादनेच्छया।।' नाट्यदर्पण के निम्नलिखित वक्तव्य से भी यही ध्वनित होता है- 'अवस्थानां च ध्रुवभावित्वात् सन्धयोऽपि नाटक-प्रकरण-नाटिका-प्रकरणीषु पञ्चावश्यम्भाविनः। समवकारादौ तु विशेषोपादानादूनत्वेऽपि न दोषः।।२ __ इस प्रकार सुस्पष्ट है कि कौमुदीमित्रानन्द एक उत्कृष्ट प्रकरण है जिसमें प्रकरण के प्राय: सभी वैशिष्ट्य उपलब्ध हैं। १. ध्वन्यालोक, ३/१२। २. ना०द०, पृ० ९४। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002080
Book TitleKaumudimitranandrupakam
Original Sutra AuthorRamchandrasuri
Author
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1998
Total Pages254
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Religion, & Culture
File Size8 MB
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