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कौमुदीमित्रानन्दरूपकम् पादास्त एव शशिनः सुखयन्ति गात्रं बाणास्त एव मदनस्य ममानुकूलाः। संरम्भरूक्षमिव सुन्दरि यद् यदासीत्
त्वत्सङ्गमेन मम तत् तदिहानुनीतम्।।। नाट्यदर्पण में इस अङ्ग के तापसवत्सराज से दिये गये द्वितीय उदाहरण में भी यही स्थिति है। (९) परिभावना
नाट्यदर्पण में परिभावना का स्वरूप यह दिया है- 'जिज्ञासातिशयेन किमेतदिति कौतुकानुबन्धो विस्मयः परिभावना।'२ ___ इस प्रकरण में मणिसम्पृक्त शीतल जल के लेपमात्र से सिद्ध के कीलित व्रणों की सफल चिकित्सा से चकित मित्रानन्द की यह कौतकपूर्ण उक्ति इसका उदाहरण है- 'कथं क्षणादेव गात्रमशेषमप्यलक्षितव्रणसनिवेशमजायत!'३ (१०) उद्भेद
प्रारम्भ में उपक्षिप्त बीज का स्वल्प विकास अर्थात् पुष्पित होना उद्भेद है। पूर्व में कहा जा चुका है कि उद्भेद और करण का सन्धि के अन्त से कुछ पूर्व (उपान्त्य में) उपनिबन्ध होना चाहिए। कौमुदीमित्रानन्द में भी नेपथ्य में उच्चरित यह पद्य'श्रेयांसि प्रभवन्तु ते प्रतिदिशं तेजांसि वर्धिष्णुिताम्' (२/११)- इस अङ्ग का उदाहरण है। (११) करण
अवसरोचित कार्य का सम्पादन (बीज के विकास हेतु) करण कहा जाता है'करणं प्रस्तुतक्रिया।
कौमुदीमित्रानन्द का वह सन्दर्भ इसका उदाहरण है जिसमें पाशपाणि द्वारा जब मित्रानन्द और मैत्रेय पर सिद्ध के कीलों के निकालने का अभियोग लगाकर
१. विक्रमोर्वशीय, ३/२०। २. ना०द०, पृ० ११२। ३. कौ०मि०, पृ० ३३। ४. ना०द०, पृ० ११४। ५. वहीं, पृ० ११५।
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