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________________ भूमिका (९) युक्ति गुण-दोष का निरूपण कर कर्त्तव्य के विषय में निर्णय करना 'युक्ति' है'युक्तिः कृत्यविचारणा । ' ' एते वयमागता एव रहः किमपि भगवत्या सह पर्यालोचयितुम्'' मित्रानन्द की इस उक्ति में यह अङ्ग सन्निवेशित है। कौमुदीमित्रानन्द में यह अङ्ग पूर्वोक्त प्रापण नामक सन्ध्यङ्ग के अन्तर्गत निबद्ध है, क्योंकि इस सन्दर्भ के प्रारम्भ में जैसा कहा जा चुका है तदनुसार कुछ अङ्ग विशेषों के क्रम की तो मान्यता है किन्तु अन्य अङ्गों का यथासम्भव क्रम हो भी सकता है, नहीं भी । स्वयं नाट्यदर्पण में प्रकरणकार ने इसी 'युक्ति' के विषय में कहा है कि तापसवत्सराज में यह युक्ति उपक्षेप और परिकर के मध्य ही उपनिबद्ध है (८) विधान I XXXV एक या अनेक पात्रों में सुख और दुःख की (पात्र के भिन्न-भिन्न होने पर एक काल में भी और पात्र के एक होने पर पौर्वापर्य से भिन्न-भिन्न काल में भी ) प्राप्ति को विधान कहा जाता है - 'विधानं सुखदुःखाप्तिः । ४ यह ज्ञातव्य है कि सुख और दुःख की प्राप्तियों में विपरीत क्रम भी हो सकता है। यह पूर्णत: निर्भर है कथा और रूपककार द्वारा उसके चित्रण पर । इसका जो उदाहरण नाट्यदर्पण में दिया गया है उसमें सुख प्राप्ति पहले और दुःख - प्राप्ति पश्चात् है । यद्विस्मयस्तिमितमस्तमितान्यभावम् आनन्दमन्दममृतप्लवनादिवाभूत् । तत्सन्निधौ तदधुना हृदयं मदीयम् अङ्गारचुम्बितमिव व्यथमानमास्ते।। ५ भवभूति के उक्त पद्य में सुख प्राप्ति पहले और दुःख - प्राप्ति पश्चाद् वर्णित है। । परन्तु कालिदास के विक्रमोर्वशीय के निम्नोल्लिखित पद्य में पहले दुःख और पश्चात् सुख की प्राप्ति वर्णित है मालतीमाधव, १/२० १. ना० द०, पृ० ११९ । २. कौ०मि०, पृ० ३० । ३. ना०५०, पृ० ११९; अन्यत्र भी कहा है नाट्यदर्पण में— 'उपक्षेपपरिकरपरिन्यासेम्योऽपराण्यङ्गानि वृत्तानुगुण्यादुद्देशक्रमातिक्रमेणापि निबध्यन्ते । ४. वहीं, पृ० १०६ । ५. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002080
Book TitleKaumudimitranandrupakam
Original Sutra AuthorRamchandrasuri
Author
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1998
Total Pages254
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Religion, & Culture
File Size8 MB
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