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________________ XXXIV कौमुदीमित्रानन्दरूपकम् (४) समाधान पूर्व में संक्षिप्त रूप में उपक्षिप्त बीज का, स्पष्टता के लिये, पुनः भङ्गिभेद से प्रकटन ‘समाधान' है- 'पुनास: समाहितिः। संक्षिप्योपक्षिप्तस्य बीजस्य स्पष्टताप्रतिपादनार्थं पुनासो भणितिवैचित्र्यं सम्यगासमन्ताद्धानं पोषणं समाहितिः। प्रकृत प्रकरण में मित्रानन्द के दर्शन से कौमुदी में हुई सात्त्विक भावों की अभिव्यक्ति देखकर कुलपति के इस कथन- 'अयं खलु ते प्राणितस्यापि स्वामी, किमङ्ग पुनरपरासां क्रियाणाम्।'२ और तदनन्तर मित्रानन्द की इस स्वगत उक्ति- 'सुमेधा निश्चितं वेधाः' (१/१९) में मुखसन्धि के समाधान नामक अङ्ग का उपनिबन्ध हुआ है। (५) विलोभन प्राप्तव्य पदार्थ की गुणवत्ता के कारण प्राप्ति की दृढ़ इच्छा को विलोभन कहते हैं। इस प्रकरण में कुलपति के इस कथन- इयं च प्ररूढयौवना.....तदस्याः पाणिग्रहणेन सफलयितुमर्हसि मर्त्यलोकावतारम्' के पश्चात् मित्रानन्द के कथन'भगवन्! कोऽयमस्मास्वज्ञातकुलशीलेषु प्रसादातिरेकः'५ के द्वारा विलोभन नामक अङ्ग को प्रकट किया गया है। (६) प्रापण फल-प्राप्ति की सम्भावना से सुख के साधन की प्राप्ति तथा तदनुसार सुखानुभव को प्रापण कहते हैं- 'प्रापणं सुखसम्प्राप्तिः।'६ कौमुदीमित्रानन्द प्रकरण में कुन्दलता से मित्रानन्द को जो मणि मिला और शीतल जल को उस मणि से सम्पृक्त कराकर उस जल द्वारा सिद्धाधिनाथ (पुरुष) के कीलितव्रण की मित्रानन्द ने जो सफल चिकित्सा की उसके वर्णन में प्रापण उपनिबद्ध है। १. ना०द०, पृ० १११। २. कौ०मि०, पृ० १९। ३. ना०द०, पृ० ११५। ४. कौ०मि०, पृ० २१। ५. वहीं, पृ० २१। ६. ना०द०, पृ० ११७। ७. कौ०मि०, पृ० ३०-३२। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002080
Book TitleKaumudimitranandrupakam
Original Sutra AuthorRamchandrasuri
Author
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1998
Total Pages254
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Religion, & Culture
File Size8 MB
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