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________________ भूमिका XXXIII इसका तात्पर्य यह है कि फलप्राप्ति के बीज का वपन ‘उपक्षेप' है। इस रूपक के अस्तमयति पुनरुदयति पुनरस्तमुपैति पुनरुदेत्यर्कः। विपदोऽपि सम्पदोऽपि च सततं न स्थास्नवः प्रायः।। इस पद्य में बीज का उपक्षेप किया गया है, क्योंकि समुद्र में नौका के डूब जाने से विपन्न मित्रानन्द आदि की सफलता की आशा इस उक्ति में परिलक्षित होती है। (२) परिकर परिकर का लक्षण है- 'स्वल्पव्यासः परिक्रिया।'२ पूर्व में उपक्षिप्त बीज का विशेष वचन द्वारा स्वल्प विस्तार ‘परिक्रिया'- 'परिकर' है। इस रूपक में मित्रानन्द से कुलपति का 'सञ्जातपाणिग्रहणोऽसि न वा'३ यह प्रश्न और मैत्रेय द्वारा 'असञ्जातपाणिग्रहण एवायं सार्थवाहसूनुः' यह उत्तर तथा इसके बाद ‘द्रुततरमाह्वय कौमुदीम्'' कुलपति के इस कथन में कौमुदी-सम्प्राप्तिस्वरूप मुख्य फल के बीजकौमुदीप्राप्त्यभिलाष का कुछ विस्तार हुआ है। (३) परिन्यास फल-प्राप्ति का विनिश्चय ‘परिन्यास' कहलाता है— 'विनिश्चयः परिन्यासः।'६ इस प्रकरण में मित्रानन्द की इस उक्ति- ‘सफलतां प्रयातु मे प्रार्थनालेश:' और कौमुदी की इस उक्ति- ‘सफलमेतस्य दर्शनेन मनुष्यजन्म' से परस्परानुराग की स्पष्ट अभिव्यक्ति से फल-प्राप्ति का विनिश्चय प्रमाणित है। अत: इसे ‘परिन्यास' कहा जाना चाहिये। १. कौ०मि०, १८॥ २. ना०द०, पृ० १०९। ३. कौ० मि०, पृ० १५। ४. वहीं, पृ० १६। ५. वहीं, पृ० १६। ६. ना०द०, पृ० १०९। ७. कौ०मि०, पृ० १७। ८. वहीं, पृ० १८। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002080
Book TitleKaumudimitranandrupakam
Original Sutra AuthorRamchandrasuri
Author
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1998
Total Pages254
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Religion, & Culture
File Size8 MB
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