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कौमुदीमित्रानन्दरूपकम् (ख) प्रतिमुखसन्धि
मुखसन्धि के अन्तर्गत सूक्ष्म रूप में विन्यस्त फलप्राप्ति के बीजस्वरूप मुख्य उपाय का प्रतिमुखसन्धि में कुछ अधिक विकास होना चाहिए। इसीलिये नाट्यदर्पण में कहा गया है- “प्रतिमुखं कियल्लक्ष्यबीजोद्घाटसमन्वितः।।"१
इस प्रकरण में तृतीय अङ्क के आदि से लेकर चतुर्थ अङ्क के १४वें पद्य तक प्रतिमुखसन्धि है। तृतीयाङ्क के प्रारम्भ से ही शृङ्गार के स्थायीभाव परस्परानुराग (रति) का पूर्ण विकसित रूप किसी अध्येता से छिप नहीं सकता। वस्तुत: इस प्रकरण में कौमुदी-मिलनस्वरूप मुख्य फल का बीज भी तो वही परस्परानुराग है। (ग) गर्भसन्धि
जिस सन्धि में पूर्वविकसित बीज में कुछ फलोन्मुखता प्रतीत होती हो- फलप्राप्ति की कुछ सम्भावना हो परन्तु विघ्नातिशय के कारण फलप्राप्ति का निश्चय न हो अर्थात् फलप्राप्ति की अपेक्षा फल की अप्राप्ति अधिक प्रत्याशित हो वह गर्भसन्धि है। इसमें फलप्राप्ति गर्भगत-अत्यन्त अस्पष्ट दशा में रहती है। अतएव यह सन्धि प्राप्त्याशा नामक तृतीय उपाय से सम्बद्ध होती है। प्रकृत प्रकरण में चतुर्थ अङ्क के १४वें पद्य के बाद से लेकर पञ्चम अङ्क तक गर्भसन्धि का क्षेत्र है, क्योंकि इस भाग में मित्रानन्द को चोर मानकर पकड़ा जाता है और अमात्य कामरति कौमुदी के प्रति अत्यन्त आसक्त होने के कारण उसे (मित्रानन्द को) राजा के समक्ष किसी भी प्रकार चोर सिद्ध करके मरवाना चाहता है। अतएव बीज के फलोन्मुख होने पर भी विघ्नातिशय के कारण फलप्राप्ति की आशा की गौणता और उसकी अप्राप्ति की प्रधानता स्पष्ट रूप में परिलक्षित होती है। (घ) विमर्शसन्धि
विमर्श का अर्थ संशय है। इस सन्धि में फलप्राप्ति की प्राय: निश्चितता होने पर भी तुल्यबल विघ्न की उपस्थिति के कारण नायक के मन में कुछ संशय फलप्राप्ति के विषय में होता ही है। वस्तुत: फलप्राप्ति के निश्चित होने का तात्पर्य नायक की दृढ़ इच्छाशक्ति के कारण निश्चितप्राय होना ही है। यही बात इस सन्धि से सम्बद्ध उपाय नियताप्ति के विषय में भी समझनी चाहिए- वहाँ भी नियत का अर्थ नियतप्राय ही है, पूर्णत: नियत नहीं। जब निश्चय संशय का विरोधी है तो फिर फलप्राप्ति का पूर्णत: निश्चय हो जाने पर उपस्थित विघ्नों के प्राप्त्युपाय का
१. ना०द०, पृ० ९६।
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