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________________ XXXI भूमिका समानबलत्व और तन्मूलक संशय कैसे हो सकता है? अत: इस प्रसङ्ग में नाट्यदर्पण तथा उसकी वृत्ति में भी जो निश्चय की उक्ति है उसका पूर्वोक्त तात्पर्य ही उचित है। प्रकृत प्रकरण-रूपक में षष्ठ अङ्क के प्रारम्भ से नवम अङ्क के - (नेपथ्ये) अहो! अब्रह्मण्यम् अब्रह्मण्यम्, अहह! पापकारित्वम्!! १ इस अंश तक विमर्शसन्धि की सीमा है। इसके अन्तर्गत मैत्रेय द्वारा विजयवर्मा (जिसके द्वारा अमात्य कामरति ने मित्रानन्द को मरवाने की कुत्सित योजना बनाई थी) के व्रणों का औषध-द्रव्य के लेप से स्वस्थ करा देने में सफलता- विजयवर्मा की अनुकूलता अर्जित कर लेने के कारण मित्रानन्द के वध को रोकने की सम्भावना हो जाने से फलप्राप्ति निश्चितप्राय हो जाती है। किन्तु दूसरी ओर अमात्य कामरति की दुष्प्रेरणा से प्रतीहार द्वारा उपस्थापित और वेषभूषा आदि के बदल जाने के कारण अपरिचेय मित्रानन्द की विजयवर्मा द्वारा यक्षराज को बलि देने के लिए निश्चय कर लिये जाने और नरदत्त के कपट के कारण मकरन्द को भी चोरी के अभियोग में युवराज द्वारा वध करने का आदेश दे दिये जाने के कारण फलप्राप्ति में प्रबल बाधा उपस्थित हो जाती है। अत: इस अंश को रामचन्द्रोक्त लक्षण "उद्भिन्नसाध्यविघ्नात्मा विमों व्यसनादिभिः''२ के अनुसार विमर्शसन्धि का क्षेत्र मानना प्रमाणित है। (ङ) निर्वहणसन्धि बीज आदि उपायों और प्रारम्भ आदि अवस्थाओं का जहाँ अन्ततोगत्वा मुख्य फल के साथ योग अर्थात् मुख्य फल का आगम (प्राप्ति) वर्णित हो रूपक का वह अंश निर्वहणसन्धि का क्षेत्र माना जाता है सबीजविकृतावस्था नानाभावा मुखादयः। फलसंयोगिनो यस्मिन् असौ निर्वहणो ध्रुवम्।। ३ इस रूपक के इसी अंश-विमर्शसन्धि के क्षेत्र से पश्चाद्वर्ती अंश में उपर्युक्त स्थिति वर्णित है। अत: यही अंश निर्वहणसन्धि के क्षेत्र में आता है। यह विषय १. यह अंश प्रकृत संस्करण के पृ०१६६ पर मुद्रित है। २ ना०द०, पृ० ९९। ३. वहीं, पृ० १०२। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002080
Book TitleKaumudimitranandrupakam
Original Sutra AuthorRamchandrasuri
Author
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1998
Total Pages254
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Religion, & Culture
File Size8 MB
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