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कौमुदीमित्रानन्दरूपकम्
में निर्देश किया गया है। यही बीज क्रमशः विकसित होता हुआ अन्तिम फल की प्राप्ति का साधन बना है।
XXVIII
सन्धि-निरूपण के लिये भूमिका के रूप में उपर्युक्त विचार के बाद अब पूर्वोक्त पाँच अवस्थाओं का संक्षिप्त विवेचन निम्नलिखित है
(क) आरम्भ
फल-प्राप्ति के लिये औत्सुक्य का प्रदर्शन ही आरम्भ है। 'कुत: पुनरियमस्माभिरुपलभ्या' द्वारा इसका प्रतिपादन प्रकृत प्रकरण में किया गया है। यह मुखसन्धि के अन्तर्गत निबन्धनीय है।
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(ख) प्रयत्न
फलोपलब्धि के लिये अपेक्षित व्यापार में अधिक औत्सुक्य - शीघ्रता को प्रयत्न कहते हैं। इस प्रकरण में तृतीय अङ्क के आदि से इसका निबन्धन कवि ने किया है। इसका समावेश उस अंश में करणीय है जो प्रतिमुख सन्धि के अन्तर्गत होता है । प्ररूढ़ औत्सुक्य को प्रयत्न कहा जाता है जबकि औत्सुक्य प्ररूढ़ होने से पूर्व अपनी मूल अवस्था में आरम्भपदवाच्य है। यही इन दोनों अवस्थाओं में अन्तर है 1
(ग) प्राप्त्याशा
फल - प्राप्ति में किसी निश्चित विघ्न की उपस्थिति न दिखाई पड़ने के कारण फल- प्राप्ति की जो आशा – सम्भावना होती है उसे ही प्राप्त्याशा कहा गया है। फलप्राप्ति का निश्चय तो इस अवस्था में नहीं होता, क्योंकि किसी अनिश्चित विघ्न की आशङ्का कुछ मात्रा में बनी ही रहती है। अतः इस अवस्था में इसका निरूपण इस रूप में किया गया है— “फलान्तरासम्बन्धात् अनिश्चितबाधकाभावाच्चोपायादीषत् प्रधानफलस्य या सम्भावना, न तु निश्चयः सा प्राप्तेः प्रधानफललाभस्य आशा । ""
इस वाक्य में 'अनिश्चितबाधकाभावात्' 'उपायात्' का विशेषण है। इसका अर्थ है - ऐसा उपाय जिसकी सफलता में कोई प्रतिबन्धक आने वाला है या नहीं इसका निश्चय तो नायक को नहीं हुआ है, किन्तु आपाततः किसी प्रतिबन्ध के न दिखाई पड़ने से फलप्राप्ति की आशा उत्पन्न हो जाती है। इसीलिये इस अवस्था में फलप्राप्ति का निश्चय हो नहीं पाता ।
१. ना० द० (वृत्ति), पृ० ८८ ।
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