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भूमिका
इस बीज का उपनिबन्ध रूपक में 'प्रस्तावना'
'आमुख' के बाद ही करना चाहिए, क्योंकि 'आमुख' रूपक का अङ्ग नहीं है। यह तो सभ्यों को सावधान करने हेतु नट का कर्त्तव्य है, नायक का इससे साक्षात् कोई सम्बन्ध नहीं होता । अतएव यदि किसी रूपक के ‘आमुख' में बीज का कथञ्चित् उपन्यास हुआ भी हो तो भी 'आमुख' के पश्चात् रूपक के प्रारम्भ में उसका निर्देश करना ही चाहिए—
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“इदं च आमुखानन्तरं निबध्यते । बीजं हि नाटकादीनाम् इतिवृत्तार्थस्योपायः । आमुखं तु रूपकप्रस्तावनार्थं नटस्यैव वृत्तम्।. ।।... अत एव आमुखोक्ता अपि बीजोक्तय: प्रविष्टनाटकपात्रेण पुनरुच्यन्ते । "
XXVII
यह बीज, रामचन्द्र के अनुसार, चार प्रकार का होता है— (क) किसी पात्र का व्यापार - विशेष, (ख) विपत्ति का सङ्केत अथवा निर्देश, (ग) निराकरणीय विपत्ति और अभीष्टसिद्धि — इन दोनों का निर्देश तथा (घ) विपत्ति आने पर उसके निराकरण के उपाय का निर्देश। यह भी ध्यातव्य है कि तृतीय प्रकार में विपत्तिमात्र के बीज के निर्देश के अतिरिक्त विपत्ति और उसके निराकरण इन दोनों का भी निर्देश हो सकता है, यद्यपि रामचन्द्र ने स्पष्टतः ऐसा कहा नहीं है । इनमें से जिस रूपक का मुख्य फल इष्टप्राप्तिमात्र हो उसमें प्रथम, जिसका मुख्य फल विपत्तिनिवृत्तिमात्र हो उसमें द्वितीय अथवा चतुर्थ और जिस रूपक के मुख्य फल अभीष्टसिद्धि और अनिष्टनिवृत्ति दोनों ही हों उसमें तृतीय प्रकार के बीज का निर्देश होना चाहिए ।
कौमुदीमित्रानन्द प्रकरण में अभीष्ट सुन्दरी कौमुदी की प्राप्ति के साथ-साथ पोत- निमज्जन आदि से जन्य अनिष्ट की निवृत्ति भी नायक को फल के रूप में अभिप्रेत है। अत: इसमें तृतीय प्रकार के बीज का निर्देश उचित है और इस प्रकरण के अध्ययन से यह सुस्पष्ट है कि इसमें अनिष्टनिवृत्तिपूर्वक इष्टफलप्राप्ति वर्णित है । अत: दोनों को स्वतन्त्र रूप में मुख्य फल तो नहीं कहा जा सकता, परन्तु विशिष्ट अनिष्टनिवृत्तिपूर्वक इष्टप्राप्ति के एक होने से तात्पर्यतः दोनों को विशिष्ट रूप में मुख्य फल कहना तो सम्भव है ही और प्रकरणकार ने वैसा ही किया भी है।
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प्रकरण के आरम्भ में मित्रानन्द की उक्ति- “अकृताखण्डधर्माणाम् (१/७)” आदि द्वारा विपत्ति और मैत्रेय की उक्ति - " अस्तमयति पुनरुदयति” (१/८)" इत्यादि द्वारा विपत्ति - निराकरण का भी उपनिबन्ध बीजरूप में किया गया है, साथ ही "अनुरूपं पतिमनासादयन्त्या कुतः पुनरियमस्माभिरुपलभ्या" तक की मित्रानन्द की उक्ति में अभीष्ट फल प्राप्ति के लिये अपेक्षित उपाय का भी बीजरूप
१. ना० द० ( वृत्ति), पृ० ६३ ।
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