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कौमुदीमित्रानन्दरूपकम्
अपनी कृति है । यद्यपि इसमें पूर्वाचार्यमत से कुछ भिन्नता है तथापि इन सब के युक्तायुक्तत्व का चिन्तन यहाँ उचित नहीं है।
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सन्धियों का विश्लेषण करने से पूर्व पाँच क्रमिक अवस्थाओं का भी संक्षिप्त निरूपण आवश्यक है, क्योंकि इन्हीं के अनुसार सन्धियों की व्यवस्था मान्य है। ये पाँच अवस्थायें हैं- आरम्भ, प्रयत्न, प्राप्त्याशा, नियताप्ति और फलागम ।
रामचन्द्र ने मुख्य फलप्राप्ति के पाँच 'उपाय' माने हैं- बीज, पताका, प्रकरी, बिन्दु और कार्य। इनमें बीज और कार्य अचेतन हैं जबकि अन्य तीन चेतन । यह चेतनाचेतन-विभाग इस पर निर्भर है कि बिन्दु, पताका और प्रकरी को रामचन्द्र ने पात्रार्थक माना है। हो सकता है कि जो अन्य आचार्यों के मत में 'अर्थप्रकृति' के स्वरूप बिन्दु, पताका और प्रकरी हैं उन्हें औपचारिक रूप में नाट्यदर्पणकार ने उनके साथ पात्रों के अर्थ में प्रयुक्त माना हो! अचेतन उपायों में बीज मुख्य है। और कार्य फलप्राप्ति में बीज का सहकारी अमुख्य । इसी प्रकार चेतन उपायों में बिन्दु मुख्य है और अन्य दो उपकरणभूत अर्थात् अमुख्य हैं । " मुख्यता और अमुख्यता के क्रमशः कारण हैं- फल प्राप्ति में विशेष उपकारक तथा सामान्य उपकारक होना । अतएव पताका, प्रकरी आदि की भी रूपक -1 क- विशेष में उक्त कारण से मुख्यता हो सकती है और उक्त कारण के अभाव में अमुख्यता, किन्तु बीज और बिन्दु की मुख्यता तो सर्वत्र होती ही है - " तत्र बीजबिन्द्वोस्तावन्मुख्यत्वमेव, सर्वव्यापित्वात्। पताका-प्रकरी - कार्याणां तु मुख्यफलं प्रत्युपयोगापेक्षया एकस्य द्वयोस्त्रयाणां वा मुख्यत्वमन्येषां चामुख्यत्वम्।'
अब बीज, जो फलप्राप्ति का मूल उपाय है, के विषय में भी संक्षिप्त चर्चा आवश्यक है। बीज मुख्य फल की प्राप्ति का मुख्य उपाय है जो नायकमात्र के प्रयत्न से अथवा उसके सहयोगियों की सहायता से क्रमश: विकसित होता हुआ अन्त में मुख्य फल को प्राप्त कराता है। विकास की दृष्टि से बीज तुल्य होने के कारण इस आरम्भिक सूक्ष्म उपाय को भी बीज कहा गया है
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" स्तोकोद्दिष्टः फलप्रान्तो हेतुर्बीजं प्ररोहणात् । । आदौ गम्भीरत्वादल्पनिक्षिप्तो मुख्यफलावसानश्च यो हेतुर्मुख्यसाध्योपायः स धान्यबीजवद् बीजम् । 'प्ररोहणात्' उत्तरत्र शाखोपशाखादिभिर्विस्तरणात्।’३
१. ना० द० (वृत्ति), पृ० ६२-६३ ।
२. वहीं, पृ० ८१ । ३. वहीं, पृ० . ६३ ॥
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