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________________ भूमिका XXIII उसके सहज स्वाभाविक सौन्दर्य को प्रस्फुटित करने हेतु किसी कृत्रिम अलङ्करण की आवश्यकता नहीं। उसके शरीर पर तो कोई भी वस्त्र स्वत: आभूषणस्वरूप हो जाता है तदपि च वपुर्लक्ष्मीरस्याः स्फुरत्यपदं गिरां प्रकृतिसुभगे पात्रे वेषो यदेव तदेव वा।। १/१८ कौमुदी एकनिष्ठ प्रेमिका---पतिव्रता स्त्री है। पति मित्रानन्द को वह अपना सर्वस्व समर्पित कर देती है- 'आत्मा मया तुभ्यं समर्पितः अतः परं यत् ते प्रतिभासते तत् क्रियताम्'। वह घोर सङ्कट की स्थिति में भी पति का साथ नहीं छोड़ती और उसके लिए अपने माता-पिता और बन्धुजनों तक का परित्याग कर देती है। अपने पातिव्रत्य धर्म का वह सदैव दृढ़तापूर्वक निर्वाह करती है। सिद्धाधिनाथ द्वारा अपहरण कर अपने भवन में रखे जाने पर भी उसका मन तनिक भी विचलित नहीं होता और वह सदैव पतिविषयक चिन्तन ही करती रहती है- 'नवरं कृततपोविधाननिश्चया तिष्ठति।' कौमुदी को एक कुलवधू की मर्यादा का पूर्ण ज्ञान है। कठिन से कठिन परिस्थिति में भी वह इस मर्यादा का अतिक्रमण नहीं करती। यात्रा से श्रान्त होने के कारण जब मित्रानन्द उसके अङ्गसंवाहन का प्रस्ताव रखता है तो वह उसको इस कार्य के लिए मना करती है, क्योंकि उसकी दृष्टि में ऐसा करना कुलवधुओं के लिए सर्वथा अनुचित है- 'आर्यपुत्र! अलमेतेन विनयप्रभ्रंशेन। न एष कुलवधूनां प्रशंसनीयो मार्गः।' उपर्युक्त विवरण से स्पष्ट है कि कौमुदी का चरित्र एक आदर्श भारतीय नारी का चरित्र है। उसमें प्रकरण की नायिका हेतु अपेक्षित सभी गुण विद्यमान हैं। प्रकृत रूपक का नाट्यशास्त्रीय विश्लेषण 'कौमुदीमित्रानन्द' एक रूपक है और विशेष रूप से यह एक 'प्रकरण' है। यह स्वयं रूपककार ने अपने नाट्यदर्पण की वृत्ति में कहा है "यथा वाऽस्मदुपज्ञे कौमुदीमित्राण(न)न्दनाम्नि प्रकरणे....'' प्रकरण के रामचन्द्रोक्त लक्षण का समन्वय होने से भी यह प्रकरण सिद्ध होता है। नाट्यदर्पणोक्त प्रकरण-लक्षण निम्नलिखित है१. ना०द० (वृत्ति), पृ० १२५। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002080
Book TitleKaumudimitranandrupakam
Original Sutra AuthorRamchandrasuri
Author
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1998
Total Pages254
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Religion, & Culture
File Size8 MB
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