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________________ XXIV कौमुदीमित्रानन्दरूपकम् प्रकरणं वणिग्विप्रसचिवस्वाम्यसङ्करात्। मन्दगोत्राङ्गनं दिव्यानाश्रितं मध्यचेष्टितम्।। दासश्रेष्ठिविटैर्युक्तं क्लेशाढ्यम् ........।। इसका तात्पर्य यह है कि प्रकरण में वणिक्, विप्र अथवा सचिव में से किसी एक को नायक होना चाहिए। लक्षणोक्त ‘मन्दगोत्राङ्गन' शब्द के स्वयं ग्रन्थकार ने दो अर्थ किये हैं- (क) नायिका को मन्द कल में उत्पन्न होना चाहिए और (ख) नायिका को कुलीन, किन्तु आचरण से मन्द अर्थात् मध्यम होना चाहिए। इस प्रकरण की नायिका कौमुदी है जिसका पिता एक धूर्त-कपटी कुलपति है। उसके मूलगोत्र, जाति आदि का कोई पता नहीं है। अतएव प्रथम अर्थ में ही 'मन्दगोत्राङ्गन' शब्द का इस प्रकरण में समन्वय माना जा सकता है। दूसरी बात यह है कि मित्रानन्द के साथ कौमुदी का आचरण भी उत्कृष्ट है, मन्द-मध्यम नहीं। जहाँ इससे पूर्व अपने पिता की इच्छा के अनुसार अनेक सम्पन्न युवकों के साथ विवाह का नाटक कर कौमुदी उनके वध में निमित्त हो चुकी है वहीं मित्रानन्द के साथ वैसा आचरण न करने की उसने प्रतिज्ञा कर ली है जैसा कि उसके निम्नलिखित कथन से सुव्यक्त है- “सफलमेतस्य दर्शनेन मनुष्यजन्म। ईदृशोऽपि तातस्य स्नेहेन मया व्यापादयितव्यः? धिग् धिग् भुवनरत्नविनाशनं मे जीवितनिर्माणम्!!'' २ यह पश्चात्ताप जहाँ एक ओर कौमुदी के विवशताहेतुक पापकर्म का एक प्रायश्चित्त है वहीं दूसरी ओर मित्रानन्द के साथ वैसा क्रूर कर्म न करने की प्रतिज्ञा का भी सङ्केत देता है। अब यह भी विचारणीय है कि रामचन्द्र ने नेता, कथावस्तु और फल में यथासम्भव एक, दो और तीनों के कल्पित होने पर प्रकरण के सात भेद किये हैं। उनमें यह कौमुदीमित्रानन्द ऐसे भेद के अन्तर्गत आता है जिसमें तीनों ही कल्पित हैं, किसी एक में भी किसी ऐतिहासिकता का कोई प्रमाण नहीं मिलता। ___इस प्रकार वणिक् मित्रानन्द के नायक होने और कौमुदी के नायिका होने से 'मन्दगोत्राङ्गनम्' पर्यन्त लक्षण का इसमें समन्वय तो स्पष्ट है। इसके बाद 'दिव्य पात्र से रहित' यह अंश आया है। दिव्य पात्र भी इस प्रकरण में अनुपलब्ध है। यद्यपि एक 'सिद्ध' दिव्य प्रतीत होता है, तथापि वस्तुत: वह दिव्य नहीं अपितु एक १. ना०द० (वृत्ति), पृ० २०२। २. कौ०मि०, पृ० १८। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002080
Book TitleKaumudimitranandrupakam
Original Sutra AuthorRamchandrasuri
Author
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1998
Total Pages254
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Religion, & Culture
File Size8 MB
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